क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
985 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अतः सत्संगसेवी विवेकीजन कानों के द्वारा आपकी कथा-नदी में और शरीर के द्वारा गंगाजी में गोता लगाकर दोनों ही तीर्थों का सेवन करते हैं और अपने पाप-ताप मिटा देते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन देवताओं ने प्रभु से प्रार्थना करते वक्त कहे ।
देवतागण प्रभु से कहते हैं कि त्रिलोकी में भक्तों की पाप राशि को धो कर बहा देने के लिए प्रभु ने दो पवित्र नदियां बहा रखी हैं । एक तो प्रभु की अमृतमयी श्रीलीला से भरी कथा की नदी है जो जीव की पाप राशि का नाश कर देती है । दूसरी प्रभु के श्रीकमलचरणों से निकली अमृत जल से भरी भगवती गंगा माता हैं जो भी जीव की पाप राशि का नाश कर देती हैं । अतः जो विवेकजन पुरुष हैं वे कानों के द्वारा प्रभु की कथा नदी में और शरीर के द्वारा भगवती श्री गंगाजी में गोता लगाकर दोनों ही तीर्थों का सेवन करते हैं । ऐसा करने पर वे जीव अपने पाप और ताप दोनों से मुक्त हो जाते हैं ।
जीव की पाप राशि प्रभु सानिध्य में रहने पर ही समाप्त हो सकती है ।
प्रकाशन तिथि : 01 सितम्बर 2017 |
986 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! कलियुग में जो साधु स्वभाव मनुष्य आपकी इन लीलाओं का श्रवण-कीर्तन करेंगे, वे सुगमता से ही इस अज्ञानरूप अंधकार से पार हो जाएंगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री ब्रह्माजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु श्री ब्रह्माजी कहते हैं कि देवतागणों की प्रार्थना पर पृथ्वी माता का भार उतारने के लिए प्रभु ने अवतार ग्रहण किया । देवताओं की प्रार्थना के अनुसार प्रभु ने यथोचित रूप से अपने अवतार काल के सभी कार्य पूर्ण कर लिए । साधु पुरुषों के कल्याणार्थ प्रभु ने धर्म की पुनःस्थापना की और ऐसा करते हुए प्रभु ने जो मधुर श्रीलीलाएं की उसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गई । प्रभु की कीर्ति का गान करके लोग अपने मन के मैल मिटा सकते हैं । प्रभु ने अपने अवतार काल में उदारता और पराक्रम से भरी अनेकों श्रीलीलाएं की हैं । कलियुग में जो मनुष्य प्रभु की इन श्रीलीलाओं का श्रवण और कीर्तन करेंगे वे लोग बड़ी सुगमता से अज्ञानरूपी अंधकार को पार करके संसार सागर से तर जाएंगे ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की श्रीलीला कथा का नित्य श्रवण एवं कीर्तन करे ।
प्रकाशन तिथि : 01 सितम्बर 2017 |
987 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 43 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं आधे क्षण के लिए भी आपके चरणकमलों के त्याग की बात सोच भी नहीं सकता । मेरे जीवन सर्वस्व ! मेरे स्वामी ! आप मुझे भी अपने धाम में ले चलिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री उद्धवजी ने प्रभु से कहे ।
श्री उद्धवजी ने जब सुना कि यदुवंश को ब्राह्मणों का श्राप लगा है कि वे नष्ट हो जाएंगे और प्रभु चाहते तो ब्राह्मणों के श्राप को मिटा सकते थे पर प्रभु ने ऐसा नहीं किया, तो श्री उद्धवजी समझ गए कि प्रभु यदुवंश का संहार करके अपनी श्रीलीला समेटकर स्वधाम जाना चाहते हैं । तब श्री उद्धवजी ने प्रभु से कहा कि वे आधे क्षण के लिए भी प्रभु के श्रीकमलचरणों का त्याग करने की सोच भी नहीं सकते । प्रभु उनके जीवन सर्वस्व हैं और उनके स्वामी हैं । इसलिए उन्होंने प्रभु से निवेदन किया कि प्रभु उन पर ऐसी कृपा करें कि उनका प्रभु से वियोग न हो और प्रभु उन्हें भी अपने साथ अपने धाम को ले जाए ।
सच्ची भक्ति यही है कि भक्त सदैव प्रभु के सानिध्य में ही रहना चाहता है और प्रभु से वियोग की बात वह सोच भी नहीं सकता ।
प्रकाशन तिथि : 04 सितम्बर 2017 |
988 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ऐसी स्थिति में हम आपके प्रेमी भक्त आपको कैसे छोड़ सकते हैं ?
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री उद्धवजी ने प्रभु से कहे ।
श्री उद्धवजी प्रभु से कहते हैं कि प्रभु की एक-एक श्रीलीला जीव के लिए परम मंगलमयी और उसके कानों के लिए अमृतस्वरूप हैं । जिसको भी एक बार कथारूपी रस का चस्का लग गया फिर उसके मन में किसी दूसरी वस्तु की लालसा ही नहीं बचती । श्री उद्धवजी कहते हैं कि जब प्रभु की कथा सुनने वालों की यह स्थिति होती है तो उन्होंने तो साक्षात प्रभु के साथ प्रवास किया है और एक-एक कर्म प्रभु के साथ किए हैं । फिर वे प्रभु को छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकते । श्री उद्धवजी का कथन है कि प्रभु के प्रेमी भक्त किसी भी स्थिति में प्रभु को छोड़ने का सोच भी नहीं सकते, फिर उनके लिए तो ऐसा करना बिलकुल असंभव है ।
भक्त और भगवान का रिश्ता ऐसा है कि दोनों एक दूसरे का संयोग चाहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : 04 सितम्बर 2017 |
989 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 46 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
हमने आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाए हुए चंदन लगाए, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किए हुए गहनों से अपने-आपको सजाते रहे । हम आपकी जूठन खाने वाले सेवक हैं । .....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री उद्धवजी ने प्रभु से कहे ।
प्रभु के स्वधाम चले जाने की बात सुनकर श्री उद्धवजी प्रभु से होने वाले वियोग की कल्पना करके विचलित हो गए । श्री उद्धवजी प्रभु से कितना प्रेम करते थे यह बात उन्होंने प्रभु से जो निवेदन किया उससे पता चलती है । श्री उद्धवजी कहते हैं कि उन्होंने प्रभु के साथ प्रवास के वक्त सदैव प्रभु की धारण की हुई माला, प्रभु के लगाए हुए चंदन, प्रभु के उतारे हुए वस्त्र और प्रभु के धारण किए हुए गहनों को प्रभु के प्रसाद रूप में पहना । श्री उद्धवजी प्रभु से कहते हैं कि वे सदा प्रभु की जूठन खाने वाले सेवक बन कर रहे । उनका गौरव इसीमें रहा कि प्रभु की धारण की हुई चीजों का उन्होंने इस्तेमाल किया और प्रभु का जूठन खाया ।
श्री उद्धवजी के कथन से एक सच्चे भक्त की प्रभु के लिए भावना व्यक्त होती है ।
प्रकाशन तिथि : 05 सितम्बर 2017 |
990 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 06
श्लो 49 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... परंतु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनों के साथ आपके गुणों और लीलाओं की चर्चा करेंगे तथा मनुष्य की सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे । .... केवल इसीसे हम दुस्तर माया को पार कर लेंगे । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन श्री उद्धवजी ने प्रभु से कहे ।
श्री उद्धवजी प्रभु से कहते हैं कि वे प्रभु के भक्तों के साथ प्रभु के सद्गुणों और श्रीलीलाओं की चर्चा करेंगे । प्रभु ने अपने अवतार काल में जो कुछ भी किया या कहा है उसका स्मरण और कीर्तन करते रहेंगे । प्रभु की चर्चा करना और प्रभु की श्रीलीलाओं का स्मरण और कीर्तन करने से बड़ा लाभ और आनंद अन्य किसी चीज में नहीं है । श्री उद्धवजी कहते हैं कि उन्हें पक्का विश्वास है कि ऐसा करते हुए वे प्रभु की माया को पार कर लेंगे । माया से निवृत्त होना अत्यंत कठिन है पर प्रभु का निरंतर चिंतन करने वाला और प्रभु की श्रीलीलाओं का स्मरण और कीर्तन करने वाला प्रभु की माया को पार कर लेता है ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की चर्चा और प्रभु की श्रीलीला का स्मरण और कीर्तन करे ।
प्रकाशन तिथि : 05 सितम्बर 2017 |
991 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 07
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्यारे उद्धव ! जिस क्षण मैं मर्त्यलोक का परित्याग कर दूँगा, उसी क्षण इसके सारे मंगल नष्ट हो जाएंगे ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी से कहे ।
प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहा कि उन्होंने देवताओं की प्रार्थना पर पृथ्वीलोक का भार उतारने के लिए अवतार ग्रहण किया था । अवतार के सभी कार्य उन्होंने पूर्ण कर लिए । अब जिस क्षण प्रभु पृथ्वीलोक से अपने स्वधाम जाएंगे उसी क्षण पृथ्वीलोक के सारे मंगल नष्ट हो जाएंगे । प्रभु के उपरोक्त कथन से एक तथ्य का प्रतिपादन होता है कि प्रभु जहाँ होते हैं वहीं सब मंगल भी होता है । प्रभु के जाते ही मंगल भी प्रभु के साथ चले जाते हैं । इसलिए अपने जीवन में प्रभु को मध्य में रखना अति आवश्यक और अनिवार्य है । ऐसा करने पर ही मंगल हमारे जीवन में स्थित रहेंगे ।
इसलिए जो जीव अपना मंगल चाहता है उसे प्रभु के सानिध्य में ही रहना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 08 सितम्बर 2017 |
992 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 07
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनमें मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्य का ही शरीर है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी से कहे ।
प्रभु कहते हैं कि उन्होंने एक पैर वाले, दो पैर वाले, तीन पैर वाले, चार पैर वाले, चार से अधिक पैर वाले और बिना पैर वाले अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण किया है । पर प्रभु कहते हैं कि उन सबमें उन्हें सबसे अधिक प्रिय मनुष्य का ही शरीर है । ऐसा इसलिए क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमान के द्वारा अपने हित और अहित का निर्णय करने में पूर्णतः समर्थ है । प्रभु मनुष्य शरीर को सबसे ऊँचा मानते हैं क्योंकि मनुष्य शरीर से हम साधन कर प्रभु तक पहुँच सकते हैं और सदैव के लिए आवागमन से मुक्त हो सकते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि मनुष्य शरीर का महत्व समझे और प्रभु प्राप्ति के लिए इसका सदुपयोग करे ।
प्रकाशन तिथि : 08 सितम्बर 2017 |
993 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 07
श्लो 44 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... गंगा आदि तीर्थों के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
इस श्लोक में भगवती गंगा माता की महिमा बताई गई है । भगवती गंगा माता का दर्शन हमारा मंगल करने वाला है । भगवती गंगा माता का स्पर्श हमें पवित्र करने वाला है । भगवती गंगा माता का नामोच्चारण हमारे पुण्य की वृद्धि करने वाला है । भगवती गंगा माता देव नदी हैं और तीनों देवों की कृपा उन पर है । प्रभु श्री विष्णुजी के श्रीकमलचरणों से निकली और प्रभु श्री ब्रह्माजी के कमंडल में समाई है । प्रभु श्री ब्रह्माजी के कमंडल से निकलकर फिर प्रभु श्री महादेवजी की जटा में समाई और वहाँ से पृथ्वीलोक में आकर सभी को तारने का कार्य करती है ।
भगवती गंगा माता में सदैव मातृ भावना रखनी चाहिए क्योंकि वे माता की तरह हमें इच्छित फल प्रदान करती है ।
प्रकाशन तिथि : 09 सितम्बर 2017 |
994 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 07
श्लो 74 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है । इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर गृहस्थी में फंसा हुआ है, वह बहुत ऊँचे तक चढ़कर गिर रहा है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने शिक्षा ग्रहण करने एक कबूतर को एक गुरु बनाया जो कि जंगल में अपने परिवार के साथ रहता था । एक बार जब कबूतर और कबूतरी दाना चुगने जंगल में गए तो एक बहेलिए ने आकर जाल फेंका और कबूतर के बच्चे उसमें फंस गए । कबूतर और कबूतरी ने जब वापस आकर देखा कि उनके बच्चे जाल में फंसे हैं तो वे दुःख के आवेग में आकर जाल में कूद गए और स्वयं भी फंस गए । यह देख कर प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने कहा कि मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है । मनुष्य शरीर सदैव के लिए हमें मुक्त होने के लिए ही मिला है । पर जो इसे पाकर भी कबूतर की तरह घर गृहस्थी में फंसा हुआ है वह मनुष्य शरीर का सदुपयोग करने से चूक जाता है ।
इसलिए मनुष्य शरीर पाकर हमें मुक्ति के लिए साधन करना चाहिए तभी हमारा जीवन सफल माना जाएगा ।
प्रकाशन तिथि : 09 सितम्बर 2017 |
995 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वैसे ही भगवत्परायण साधक को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति से प्रफुल्लित न होना चाहिए और न उनके घटने से उदास ही होना चाहिए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने श्री समुद्रदेवजी को अपना गुरु माना और उनसे शिक्षा ग्रहण की कि प्रभु को पाने का साधन करने वाले साधक को सर्वदा प्रसन्न और गंभीर रहना चाहिए । साधक का प्रभु के प्रति भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिए । जैसे श्री समुद्रदेवजी वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण बढ़ते नहीं और ग्रीष्म ऋतु में ताप के कारण घटते नहीं वैसे ही साधक को सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति पर न तो प्रफुल्लित होना चाहिए और न ही सांसारिक पदार्थों के घटने पर उदास होना चाहिए । साधक को केवल प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त चीजों में ही संतोष करना चाहिए तभी वह साधन मार्ग में आगे बढ़ पाएगा ।
साधक को चाहिए कि संतोषी प्रवृत्ति का बनकर प्रसन्न और गंभीर रहे और प्रभु के लिए अपनी असीम भाव को कायम रखे ।
प्रकाशन तिथि : 10 सितम्बर 2017 |
996 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 10 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... वैसे ही बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार और उनका रस निचोड़ ले ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
प्रभु श्री दत्तात्रेयजी कहते हैं कि जैसे भौंरा विभिन्न पुष्पों से, चाहे वह छोटे हो या बड़े हो, उनका सार संग्रह करता है वैसे ही बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार निकाल ले । सभी शास्त्रों का सार यही है कि मानव जीवन हमें चौरासी लाख योनियों के बाद प्रभु की प्राप्ति करने के लिए मिला है । इसलिए मानव जीवन का उपयोग प्रभु प्राप्ति के लिए साधन करने में करना चाहिए । प्रभु प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन प्रभु की भक्ति है । सभी शास्त्र और सभी संत एकमत हैं कि प्रभु को पाने के लिए और संसार चक्र से छूटने के लिए प्रभु की भक्ति ही करनी चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि प्रभु की भक्ति कर प्रभु प्राप्ति का प्रयास जीवन में करके अपने मानव जीवन को सफल करे ।
प्रकाशन तिथि : 10 सितम्बर 2017 |
997 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट हृदय में ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान विराजमान हैं । वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थ का सच्चा धन भी देने वाले हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
प्रभु श्री दत्तात्रेयजी कहते हैं कि उन्होंने पिंगला को गुरु बनाया जिसे संसार से वैराग्य हो गया । संसार से वैराग्य होते ही प्रभु में उसकी आस्था हो गई । उसने कहा कि मेरे निकट-से-निकट मेरे हृदय में मेरे सच्चे स्वामी प्रभु विराजमान हैं । प्रभु ही वास्तविक सुख, प्रेम और परमार्थरूपी सच्चा धन देने वाले हैं । जगत अनित्य है, प्रभु ही नित्य हैं । जो लोग प्रभु को छोड़कर जगत का सेवन करते हैं जगत उनकी कोई कामना पूर्ण नहीं करता उल्टे दुःख, भय, व्याधि और शोक ही देता है । यह हमारी मूर्खता होती है कि हम जगत का सेवन करते हैं और ऐसा करते हुए प्रभु को भूल जाते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि जगत को भूलकर प्रभु से प्रेम करे ।
प्रकाशन तिथि : 11 सितम्बर 2017 |
998 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 35 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मेरे हृदय में विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियों के हितैषी, सुहृद, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
प्रभु सबके हृदय में विराजमान रहते हैं । प्रभु समस्त प्राणियों के सच्चे हितैषी हैं । प्रभु सभी प्राणियों के प्रियतम हैं क्योंकि वे समस्त प्राणियों को अत्यंत प्रेम करते हैं । प्रभु समस्त प्राणियों की आत्मा हैं । प्रभु ही समस्त प्राणियों के स्वामी भी हैं । ऐसे परम प्रियतम प्रभु को छोड़कर हमें संसार की तरफ आकर्षित नहीं होना चाहिए । संसार से वैराग्य सुख मिलने पर जब संसार से वैराग्य होता है तभी प्रभु के लिए हमारा प्रेम जागृत होता है अन्यथा जीव संसार में ही रमता रहता है । हमें प्रभु की शरण ग्रहण करनी चाहिए और प्रभु के उपकार आदरपूर्वक सिर झुका कर स्वीकार करने चाहिए ।
जीव को अपना सबसे निकटतम संबंध प्रभु से ही बनाना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 11 सितम्बर 2017 |
999 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 08
श्लो 41 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अब भगवान को छोड़कर इसकी रक्षा करने में दूसरा कौन समर्थ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
जीव संसाररूपी कुएं में गिरा हुआ है । संसार के विषयों ने उसे अंधा बना दिया है । उसका सारा जीवन विषयों के चिंतन में और विषयों को भोगने में व्यर्थ जा रहा है । कालरूपी अजगर ने उसे अपने मुँह में दबा रखा है और पता नहीं कब उसे निगल जाए । जीव को किसी भी पल मृत्यु आ सकती है । काल का ग्रास बना जीव फिर भी असावधान रहता है । ऐसी अवस्था में जीव की रक्षा एकमात्र प्रभु ही कर सकते हैं । प्रभु को छोड़कर दूसरा कोई भी जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं है । फिर भी जीव का दुर्भाग्य है कि वह प्रभु की तरफ नहीं मुड़ता और सांसारिक विषयों के उपभोग में लगा रहता है ।
जीव को चाहिए कि विषयों की तरफ से विरक्त होकर प्रभु की तरह मुड़े तभी उसका उद्धार संभव है ।
प्रकाशन तिथि : 12 सितम्बर 2017 |
1000 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 09
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
..... वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
प्रभु श्री दत्तात्रेयजी कहते हैं कि एक मकड़ी अपने मुँह से जाल फैलाती है फिर उसमें विहार करती है और अंत में उसे वापस निगल जाती है । वैसे ही प्रभु इस जगत को अपने भीतर से उत्पन्न करते हैं फिर प्रभु इस जगत में जीवरूप से विहार करते हैं और फिर अंत में प्रलय के समय सब प्रभु के अंदर लीन हो जाता है । इसलिए शास्त्रों और संतों ने जगत को प्रभुमय देखा है । शास्त्र कहते हैं कि एक प्रभु को छोड़कर जगत में कुछ अन्य है ही नहीं । जगत में प्रभु के अलावा किसी का अस्तित्व ही नहीं है । संतों ने भी जगत को प्रभुमय देखा और इसलिए जगत में सर्वत्र प्रभु के दर्शन किए ।
भक्तों को सदैव और सर्वत्र प्रभु के दर्शन होते हैं क्योंकि उन्हें पूरा जगत ही प्रभुमय दिखता है ।
प्रकाशन तिथि : 12 सितम्बर 2017 |
1001 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 09
श्लो 22 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
राजन ! मैंने भृंगी कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा कैसे भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने भृंगी कीड़े को अपना गुरु बनाया और उससे चिंतन करने की शिक्षा प्राप्त की । भृंगी एक अन्य कीड़े को लाकर अपने रहने की जगह में रख देता है और उसे बंद कर देता है । भीतर फंसा हुआ कीड़ा बाहर भृंगी का डर से चिंतन करता रहता है और भृंगी का स्वरूप पा जाता है । प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने यह देखकर शिक्षा ग्रहण की कि जीव को अन्य सांसारिक वस्तु का चिंतन न करके केवल प्रभु का ही चिंतन करना चाहिए तभी वह प्रभु से एकरूप हो सकता है । प्रभु का निरंतर चिंतन करने से प्रभुता के दर्शन हमें होने लगेंगे ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह जीवन में एकमात्र प्रभु का ही चिंतन करें ।
प्रकाशन तिथि : 13 सितम्बर 2017 |
1002 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 09
श्लो 28 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... तब उन्होंने मनुष्य-शरीर की सृष्टि की । यह ऐसी बुद्धि से युक्त है, जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकती है । इसकी रचना करके वे बहुत आनंदित हुए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
प्रभु ने वृक्ष, रेंगनेवाले जीव, पशु, पक्षी, मछली आदि अनेक प्रकार की योनियां रची । परंतु इतने जलचर, थलचर, नभचर और वनस्पति की योनियों की रचना करने पर भी प्रभु को संतोष नहीं हुआ । तब उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की । प्रभु ने मनुष्य शरीर को ऐसी बुद्धि से युक्त किया जिससे वह प्रभु का साक्षात्कार पा सकता है । मनुष्य की रचना करके प्रभु संतुष्ट और आनंदित हुए । इसलिए सचमुच सभी योनियों में मनुष्य योनि अत्यंत दुर्लभ है । इसका सही उपयोग प्रभु की प्राप्ति करने के लिए ही करना चाहिए । मनुष्य जन्म पाकर भी अगर हमने प्रभु की प्राप्ति नहीं की तो हमने अपना अमूल्य मनुष्य जन्म को व्यर्थ में गंवा दिया ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह अपने जीवन में मनुष्य जन्म पाकर प्रभु की भक्ति करके प्रभु प्राप्ति का प्रयास करें ।
प्रकाशन तिथि : 13 सितम्बर 2017 |
1003 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 09
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु श्री दत्तात्रेयजी ने राजा श्री यदुजी को कहे ।
मनुष्य शरीर अनित्य है क्योंकि मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है । परंतु इस मनुष्य शरीर से ही हम परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं । इसलिए अनेकानेक जन्मों के बाद अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर बुद्धिमान जीव को चाहिए कि शीघ्रातिशीघ्र मृत्यु से पहले मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करे । विषय भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं इसलिए विषय भोगों के चक्कर में अपना अमूल्य मानव जीवन नष्ट नहीं करना चाहिए । मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति ही होना चाहिए ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपने मानव जीवन का सदुपयोग करें और विषय भोगों में इसे व्यर्थ न करें ।
प्रकाशन तिथि : 14 सितम्बर 2017 |
1004 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 10
श्लो 04 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो पुरुष मेरी शरण में है, उसे अंतर्मुख करने वाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिए । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो जीव उनकी शरण में है और जिसने प्रभु की शरणागति ग्रहण की है उसे अंतर्मुख होना चाहिए और निष्काम होना चाहिए । प्रभु का साक्षात्कार हमें अंतर्मुख होने पर ही मिल सकेगा । प्रभु हमारे भीतर स्थित हैं इसलिए हमें अंतर्मुख होने की जरूरत है । प्रभु ने निष्काम होने पर भी बहुत जोर दिया है । जो जीव प्रभु की निष्कामता से भक्ति करता है प्रभु उस पर तत्काल प्रसन्न होते हैं । सकाम भक्तों को प्रभु उनकी इच्छानुसार वस्तु का दान करते हैं पर निष्काम भक्तों को प्रभु अपने स्वयं का ही दान कर देते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि वह बहिर्मुख न हो और सकाम न हो ।
प्रकाशन तिथि : 14 सितम्बर 2017 |
1005 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 10
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बात का पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जाएंगे और मैं यहाँ से ढ़केल दिया जाऊँगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जो लोग अपने पुण्यों के बल पर स्वर्ग जाते हैं उन्हें देवताओं के समान दिव्य भोग भोगने को मिलते हैं । पर वह जीव दिव्य भोग को भोगता-भोगता इतना बेसुध हो जाता है कि उसे पता ही नहीं चलता कि कब उसके पुण्य समाप्त हो गए । पुण्य समाप्त होते ही उसे स्वर्ग से धकेल दिया जाता है । जब तक उसके पुण्य शेष थे वह स्वर्ग में था पर पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहने पर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है । पर जो प्रभु की भक्ति करके प्रभु तक पहुँच जाता है उसे वापस कभी गिरना नहीं पड़ता । उसको आवागमन से सदैव के लिए मुक्ति मिल जाती है ।
इसलिए जीव को स्वर्ग प्राप्ति को भूलकर प्रभु की प्राप्ति के लिए प्रभु की भक्ति कर प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : 17 सितम्बर 2017 |
1006 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 10
श्लो 29 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जितने भी सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म हैं, उनका फल दुःख ही है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु कहते हैं कि जितने भी सकाम कर्म है उसका फल अंत में दुःख ही है । पर जो प्रभु की निष्काम भक्ति करता है उससे परमानंद की प्राप्ति होती है । निष्काम भक्ति करने वाला भक्त प्रभु के पास पहुँच जाता है । भक्ति में निष्कामता आना भक्ति का गौरव है । सकाम होने पर जो हम मांगते हैं वह हमें मिलता है पर प्रभु नहीं मिलते । निष्काम होने पर प्रभु हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः ही करते हैं और स्वयं भी हमारे लिए उपलब्ध हो जाते हैं । सभी श्रेष्ठ भक्तों ने प्रभु की निष्काम भक्ति ही की है और अंत में प्रभु को पाया है ।
निष्कामता का फल सकामता से बहुत अधिक है इसलिए जीव को चाहिए कि परमार्थ में निष्काम बनकर रहे ।
प्रकाशन तिथि : 17 सितम्बर 2017 |
1007 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मेरे गुणों से रहित वाणी व्यर्थ है । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
जो वाणी प्रभु का गुणगान नहीं करती वह व्यर्थ है । हम अपनी वाणी को सांसारिक चर्चाओं में लगाते हैं । दिन रात हम अपनी वाणी से संसार की बातें करते हैं । पर शास्त्र कहते हैं कि जो वाणी संसार की बातें करती है वह व्यर्थ है । वाणी का धर्म है कि वह प्रभु का गुणगान करें । वही वाणी धन्य होती है जो प्रभु का गुणगान करती है । ऋषियों, संतों और भक्तों की वाणी ने सदैव प्रभु का ही गुणगान किया है । हमें वाणी इसलिए ही मिली है कि हम इसका उपयोग प्रभु के गुणगान करने में करें ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपनी वाणी को धन्य करने के लिए प्रभु का नित्य गुणगान करें ।
प्रकाशन तिथि : 18 सितम्बर 2017 |
1008 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(एकादश स्कंध) |
अ 11
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... मुझ सर्वव्यापी परमात्मा में अपना निर्मल मन लगा दे ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन प्रभु ने श्री उद्धवजी को कहे ।
प्रभु जीव से एकमात्र उसका मन चाहते हैं । प्रभु को हम अन्य कुछ भी अर्पण करें तो वह प्रभु के लिए गौण है क्योंकि प्रभु केवल हमारा मन चाहते हैं । पर जीव इतना चतुर है कि वह अपना मन प्रभु को नहीं देता । प्रभु को हम अन्य किसी भी चीज से नहीं रिझा सकते । जो अपना मन प्रभु को समर्पित कर देता है प्रभु उस पर प्रसन्न होकर उसे अपना लेते हैं । सभी भक्तों ने अपना मन प्रभु को अर्पण किया है । भक्ति हमें अपना मन प्रभु को अर्पण करना ही सिखाती है । मन के अलावा प्रभु की जीव से कोई मांग नहीं होती । प्रभु केवल और केवल हमारा मन ही चाहते हैं ।
इसलिए जीव को चाहिए कि अपना मन प्रभु को समर्पित करें ।
प्रकाशन तिथि : 18 सितम्बर 2017 |