क्रम संख्या |
श्रीग्रंथ |
अध्याय -
श्लोक संख्या |
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज |
217 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 16
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! आप सत्वगुण की खान हैं और सभी जीवों का कल्याण करने के लिए उत्सुक हैं .... ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की दो विशेषताओं का उल्लेख यहाँ मिलता है ।
प्रभु सद्गुणों की खान हैं यानी जितने भी सद्गुण हैं उनका वास प्रभु में है । सभी सद्गुण प्रभु में विद्यमान हैं । इसलिए प्रभु के सद्गुणों का चिंतन नवधा भक्ति के नौ प्रकारों में एक प्रकार की भक्ति मानी गई है । सभी शास्त्र प्रभु के सद्गुणों का गुणानुवाद करते हैं ।
दूसरी बात, प्रभु सभी जीवों के कल्याण के लिए उत्सुक रहते हैं । जैसे एक पिता अपने पुत्रों के कल्याण के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है वैसे ही परमपिता सभी जीवों का कल्याण करने के लिए सदैव आतुर रहते हैं । प्रभु सभी का कल्याण, सभी का मंगल चाहते हैं । इसलिए भक्ति द्वारा प्रभु से संबंध स्थापित करने पर हमारा कल्याण और मंगल स्वतः होने लगता है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 अगस्त 2014 |
218 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 19
श्लो 27 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... अहो ! ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु ने हिरण्याक्ष का वध किया तो देवतागण उसकी प्रशंसा करने लगे और उपरोक्त वाक्य कहे ।
योगीजन प्रभु के जिन श्रीकमलचरणों का ध्यान करने में अपना सारा जीवन लगा देते हैं और फिर भी कठिनाई से जिनका ध्यान हो पाता है, उन श्रीकमलचरणों के साक्षात प्रहार से हिरण्याक्ष को मृत्यु मिली, इसे देखकर देवतागण भी उसके भाग्य की प्रशंसा किए बिना नहीं रह पाए ।
जिन प्रभु की झांकी अपने अंतिम समय में देखने के लिए संतजन अपने पूरे जीवन प्रयास करते हैं उन प्रभु को साक्षात अपने नेत्रों से देखते देखते हिरण्याक्ष ने प्राण त्यागे, इसे देखकर भी देवतागण उसके भाग्य की प्रशंसा करते हैं ।
प्रभु इतने कृपावान और करुणावान हैं कि अपने से विरोध करने वाले को भी वह गति दे देते हैं जो सत्पुरुषों को भी अथक प्रयास से मिलती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 अगस्त 2014 |
219 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 20
श्लो 05 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
उन दोनों में वार्तालाप होने पर श्रीहरि के चरणों से सम्बन्ध रखने वाली बड़ी पवित्र कथाएं हुई होंगी, जो उन्हीं चरणों से निकले हुए गंगाजल के समान सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली होंगी ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री विदुरजी एवं ऋषि श्री मैत्रेयजी के मध्य वार्तालाप के विषय में उपरोक्त श्लोक है ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब दो प्रभु भक्तों के बीच वार्तालाप होता है तो वार्तालाप का विषय प्रभु ही होते हैं । वे प्रभु कथा, प्रभु की श्रीलीला, प्रभु के सद्गुणों की आपस में चर्चा करते हैं । दो संसारी के बीच चर्चा होगी तो विषय संसार होगा पर दो भक्तों के बीच चर्चा होगी तो चर्चा का विषय प्रभु ही होंगे । क्योंकि भक्तों को संसार की चर्चा में रस नहीं आता, उन्हें तो आनंद प्रभु की चर्चा में ही आता है ।
दूसरी बात जो कही गई है वह यह कि प्रभु की कथा भगवती गंगा माता के दिव्य जल के समान सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली है । प्रभु की कथा का श्रवण, वाचन या पठन, इन तीनों में से कुछ भी किया जाए तो वह निश्चित हमारे पापों का नाश करता है । पापों के नाश का यह अचूक साधन है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 अगस्त 2014 |
220 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 20
श्लो 06 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... प्रभु के उदार चरित्र तो कीर्तन करने योग्य होते हैं । भला, ऐसा कौन रसिक होगा, जो श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते तृप्त हो जाए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के उदार श्रीचरित्र की कथा कीर्तनीय होती हैं इसलिए भक्तों ने, संतों ने उनके पदों की रचना की है । इन पदों का भजन और कीर्तन जीवन में नित्य हो ऐसा प्रयास करना चाहिए । प्रभु के उदार श्रीचरित्र एवं सद्गुणों के गान से हम पवित्र होते हैं और हमारे पापों का क्षय होता है । प्रभु का नित्य अनुसंधान करने का यह एक सुलभ साधन है । प्रभु का नित्य अनुसंधान करने के लिए श्रीगोपीजन प्रभु की श्रीलीलाओं का नित्य गान करती रहती थीं ।
दूसरी बात जो कही गई है वह यह कि ऐसा कौन रसिक होगा जो प्रभु के लीलामृत के पान से तृप्त हुआ हो । प्रभु की श्रीलीलाओं का गान हमें तृप्ति और अतृप्ति दोनों एक साथ देती है । वे हमारे सांसारिक तापों को शान्त कर हमें तृप्ति देती हैं पर साथ ही इतना आनंद देती हैं कि और अधिक श्रीलीलाओं के गान की इच्छा बन जाती है और इस तरह अतृप्ति भी देती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 अगस्त 2014 |
221 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 21
श्लो 13 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
स्तुति करने योग्य परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण सत्वगुण के आधार हैं । योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियों में जन्म लेकर अंत में योगस्थ होने पर आपके दर्शनों की इच्छा करते हैं, आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषि श्री कर्दमजी ने प्रभु की स्तुति करते वक्त उपरोक्त वाक्य कहे । चार बातें ध्यान देने योग्य हैं ।
पहली बात, जगत में स्तुति करने योग्य केवल परमेश्वर ही हैं । इसलिए संत और भक्त कभी किसी संसारी की स्तुति नहीं करते अपितु सिर्फ और सिर्फ प्रभु की ही स्तुति करते हैं ।
दूसरी बात, प्रभु सम्पूर्ण सद्गुणों के आधार हैं । तीसरी बात, योगिजन भी मानव योनि में जन्म लेकर अंत में प्रभु के दर्शन की ही इच्छा रखते हैं । चौथी बात, नेत्रों का फल क्या है ? नेत्रों का फल प्रभु के दर्शन हैं । हम नेत्रों से बहुत कुछ संसारी चीजें देखते हैं पर नेत्र पाकर नेत्रों का सच्चा फल प्रभु के दर्शन ही हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 31 अगस्त 2014 |
222 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 21
श्लो 14 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आपके चरणकमल भवसागर से पार जाने के लिए जहाज हैं । जिनकी बुद्धि आपकी माया से मारी गई है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखों के लिए, जो नरक में भी मिल सकते हैं, उन चरणों का आश्रय लेते हैं, किन्तु स्वामिन ! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषि श्री कर्दमजी ने प्रभु की स्तुति करते वक्त उपरोक्त वाक्य कहे । दो बातें ध्यान देने योग्य हैं ।
पहली बात, प्रभु के श्रीकमलचरण भवसागर पार उतरने के लिए जहाज समान हैं । जैसे हम जहाज में बैठकर सागर पार करते हैं वैसे ही प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेकर हम भवसागर पार कर सकते हैं ।
दूसरी बात, जिनकी बुद्धि माया से ग्रसित होती है वे प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय तुच्छ, क्षणिक और क्षणभंगुर विषय के सुखों के लिए लेते हैं । प्रभु उन पर भी कृपा करते हैं और उन्हें विषयों के सुख प्रदान करते हैं । पर सच्चे संत और भक्त प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय किसी विषय सुख के लिए नहीं लेते अपितु भवसागर पार उतरने के लिए लेते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 31 अगस्त 2014 |
223 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 21
श्लो 21 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
नाथ ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलाने वाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करने वाले पर भी समस्त अभिलाषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की माया संसार के सारे व्यवहारों को चलाने वाली है । प्रभु की प्रेरणा से प्रभु की माया सारे संसार का संचालन करती है । प्रभु निष्क्रिय रहते हैं और प्रभु की माया सक्रिय है । सक्रिय रहकर प्रभु की माया संसार के सारे व्यवहारों को चलाती है ।
दूसरी बात जो कही गई है वह यह कि प्रभु इतने दयालु और कृपालु हैं कि थोड़ी-सी उपासना करने वाले की समस्त कामनाओं की पूर्ति करते हैं और इच्छित वस्तु की वर्षा करते हैं । प्रभु मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं और थोड़ी-सी उपासना पर भक्तों के सभी मनोरथों को पूर्ण करते हैं । जिस भी इच्छा से जो प्रभु की उपासना करता है प्रभु उसे उसकी प्राप्ति करवाते हैं । प्रभु शीघ्र प्रसन्न होने वाले और मनोवांछित फल देने वाले हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 सितम्बर 2014 |
224 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 21
श्लो 24 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रजापते ! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती, फिर जिनका चित्त निरन्तर एकान्तरूप से मुझमें ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओं के द्वारा की हुई उपासना का तो और भी अधिक फल होता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उक्त वाक्य ऋषि श्री कर्दमजी की स्तुति के जवाब में कहे । यह प्रभु वचन हैं एवं इनमें ध्यान देने योग्य दो बातें हैं ।
पहली बात, प्रभु कहते हैं कि प्रभु की आराधना कभी भी निष्फल नहीं जाती । यह एक शाश्वत सत्य है कि किसी भी निमित्त, किसी भी परिस्थिति में की गई प्रभु की आराधना कभी व्यर्थ नहीं जाती । प्रभु की आराधना सदैव फलदायी ही होती है ।
दूसरी बात, प्रभु कहते हैं कि जिन महात्माओं और संतों का मन एकाग्र होकर प्रभु में लगा हुआ है उन महात्माओं और संतों द्वारा की गई आराधना अधिक फलदायी होती है । यहाँ एक स्पष्ट सिद्धांत का उल्लेख है कि प्रभु आराधना में जितनी एकाग्रता होगी उसका लाभ अथवा फल उतना ही अधिक होगा ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 07 सितम्बर 2014 |
225 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 21
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तुम भी मेरी आज्ञा का अच्छी तरह पालन करने से शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब कर्मों का फल मुझे अर्पण कर मुझको ही प्राप्त होओगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उक्त वचन ऋषि श्री कर्दमजी की स्तुति के जवाब में कहे । यह प्रभु वचन हैं एवं यहाँ ध्यान देने योग्य दो बातें हैं ।
पहली बात, प्रभु आज्ञा का पालन करने से हम शुद्धचित्त होते हैं । प्रभु आज्ञा का मतलब है श्री वेदजी की, धर्मशास्त्रों की आज्ञा ।
दूसरी बात, अपने सभी कर्म प्रभु को अर्पण करने से हम कर्मबंधन में नहीं फंसते और मुक्त होकर प्रभु को प्राप्त करते हैं । श्रीमद् भगवद् गीताजी में भी स्पष्ट उपदेश है कि अपने सभी कर्म प्रभु को अर्पित करते चलना चाहिए एवं कर्मफल की चाह नहीं रखनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 अक्टूबर 2014 |
226 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 21
श्लो 31 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... फिर सबको अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत को मुझमें और मुझको अपने में स्थित देखोगे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उक्त वचन ऋषि श्री कर्दमजी की स्तुति के जवाब में कहे ।
आत्मज्ञान प्राप्त होने पर हम सम्पूर्ण जगत को प्रभु में स्थित देखते हैं और प्रभु को अपने अंत:करण में स्थित देखते हैं ।
सभी आत्मज्ञान युक्त संतों ने ऐसा अनुभव किया है कि सम्पूर्ण जगत प्रभु में स्थित है । श्रीमद् भगवद् गीताजी में विश्वरूप दर्शन के समय श्री अर्जुनजी ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रभु की रोमावली में स्थित देखा ।
ऐसे ही सभी आत्मज्ञान युक्त संतों ने प्रभु को अपने भीतर अनुभव किया है । तभी तो संत श्री कबीरदासजी ने लिखा कि प्रभु को बाहर कहाँ खोजते हो, वे तो तुम्हारे भीतर ही स्थित हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 26 अक्टूबर 2014 |
227 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 22
श्लो 20 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनसे इस विचित्र जगत की उत्पति हुई है, जिनमें यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रय से यह स्थित है, मुझे तो वे प्रजापतियों के भी पति भगवान श्रीअनन्त ही सबसे अधिक मान्य हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु आज्ञा से महाराज स्वयंभुव मनुजी ने अपनी कन्या के विवाह का प्रस्ताव ऋषि कर्दमजी के सामने रखा तो ऋषि कर्दमजी ने उक्त वचन कहे ।
ऋषि श्री कर्दमजी ने कहा कि जब तक संतान न हो जाए तब तक वे गृहस्थ धर्मानुसार रहेंगे, उसके बाद संन्यास ग्रहण करके प्रभु भजन में लग जाएंगे क्योंकि उन्हें जीवन में प्रभु ही सबसे अधिक मान्य हैं ।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि जीवन में हमने किसे प्रधानता दी है । जीवन में प्रथम प्रधानता सिर्फ और सिर्फ प्रभु की ही होनी चाहिए । अपना यथोचित धर्म निर्वाह करने के बाद सिर्फ और सिर्फ प्रधानता प्रभु की ही होनी चाहिए । यथोचित धर्म निर्वाह करने के दौरान भी प्रधानता सिर्फ और सिर्फ प्रभु की ही होनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 02 नवम्बर 2014 |
228 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 22
श्लो 33 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रातःकाल होने पर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियों के सहित उनका गुणगान करते थे, किन्तु मनुजी उसमें आसक्त न होकर प्रेमपूर्ण हृदय से श्रीहरि की कथाएं ही सुना करते थे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - महाराज श्री मनुजी जब अपनी राजधानी ब्रह्मावर्त में रहते थे तो प्रातःकाल गन्धर्वगण उनका गुणगान करने आते थे । परंतु महाराज श्री मनुजी अपने गुणगान में आसक्त न होकर उस समय प्रेमपूर्वक प्रभु का गुणगान करने वाली प्रभु की कथाएं सुनते थे ।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि जब महाराज श्री मनुजी की स्तुति गन्धर्वगण करते थे तो वे उस समय उसमें आसक्त न होकर प्रभु की स्तुति करते थे ।
जीव को अपनी स्तुति सुनने में बहुत रस आता है पर यह उसका पतन करवाती है । शास्त्र कहते हैं कि स्तुति योग्य तो सिर्फ और सिर्फ प्रभु ही हैं इसलिए हमें सदैव प्रभु की ही स्तुति करनी और सुननी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 02 नवम्बर 2014 |
229 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 22
श्लो 34-35 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वे इच्छानुसार भोगों का निर्माण करने में कुशल थे, किन्तु मननशील और भगवत्परायण होने के कारण भोग उन्हें किंचित भी विचलित नहीं कर पाते थे । भगवान विष्णु की कथाओं का श्रवण, ध्यान, रचना और निरूपण करते रहने के कारण उनके मन्वन्तर को व्यतीत करनेवाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते थे ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - महाराज श्री मनुजी इच्छानुसार भोगों का निर्माण करने में सक्षम और कुशल थे । पर भक्त होने के कारण वे भोगों से दूर रहते थे । भोग उन्हें कभी विचलित नहीं कर पाते थे ।
वे अपना अधिकतर समय प्रभु की कथा श्रवण और निरूपण करने में एवं प्रभु का ध्यान करने में लगाते थे और इस तरह उनके जीवन का
थोड़ा-सा भी पल व्यर्थ नहीं जाता था ।
हम अपने जीवन के पलों को भोगों में लगाकर व्यर्थ ही बिता देते हैं । जीवन का वही पल सार्थक होता है जो प्रभु भजन, प्रभु सेवा और प्रभु चिंतन में लगता है । इसलिए हमारे जीवन में भोगों की नहीं अपितु प्रभु की प्रधानता होनी चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 09 नवम्बर 2014 |
230 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 22
श्लो 37 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो पुरुष श्रीहरि के आश्रित रहता है, उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - मेरा एक प्रिय श्लोक है क्योंकि यहाँ एक सिद्धांत का प्रतिपादन होता है ।
सिद्धांत यह है कि जो प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लेता है उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक एवं भौतिक दुःख कभी कष्ट नहीं पहुँचा सकते ।
प्रभु का आश्रय लेने से हम शरीर के दुःख, मन के दुःख, देवतागण के प्रकोप के कारण उत्पन्न दुःख, वित्त के अभाव के कारण उत्पन्न दुःख एवं सांसारिक दुःखों से मुक्त रह सकते हैं ।
सभी दुःखों से मुक्त रहने का कितना सरल मार्ग है कि हमें सिर्फ प्रभु का आश्रय लेना है और फिर हमें कोई भी दुःख कभी भी दुःखी नहीं करेगा । पर हम जीवन में प्रभु का आश्रय नहीं लेते और दुःखों में डूबे रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 09 नवम्बर 2014 |
231 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 23
श्लो 42 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिन्होंने भगवान के भवभयहारी पवित्र पाद पद्मों का आश्रय लिया है, उन धीर पुरुषों के लिए कौन-सी वस्तु या शक्ति दुर्लभ है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषि श्री मैत्रेयजी ने उपरोक्त बात श्री विदुरजी को कही । यह बात ऋषि श्री कर्दमजी के संदर्भ में कही गई थी जो प्रभु के भक्त और महायोगी थे और प्रभु कृपा से मिली योग शक्ति के द्वारा उन्होंने अपनी पत्नी भगवती देवहूतिजी की समस्त इच्छाओं की पूर्ति की ।
जिन्होंने प्रभु के श्रीकमलचरणों का आश्रय लिया हो और प्रभु की भक्ति कर प्रभु को संतुष्ट कर दिया हो उनके लिए संसार की कोई भी वस्तु अथवा संसार की कोई भी शक्ति दुर्लभ नहीं है । प्रकृति प्रभु भक्त के अधीन हो जाती है । कोई भी इच्छित वस्तु प्रभु भक्त को स्वतः ही प्राप्त हो जाती है क्योंकि प्रभु की सारी शक्तियाँ भक्त की सेवा में लग जाती हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 नवम्बर 2014 |
232 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 23
श्लो 53 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
प्रभो ! अब तक परमात्मा से विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोगने में बीता है, वह तो निरर्थक ही गया ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - उपरोक्त वचन भगवती देवहूतिजी ने ऋषि श्री कर्दमजी से कही ।
जो समय परमात्मा से विमुख रहकर इन्द्रिय सुख भोगने में बीतता है वह समय निरर्थक व्यतीत हुआ, ऐसा मानना चाहिए ।
हम अपना पूरा जीवन इन्द्रिय सुख भोगने में व्यतीत कर देते हैं और प्रभु प्राप्ति की तरफ कोई प्रयास नहीं करते । ऐसा करने पर मानव जीवन व्यर्थ चला जाएगा, यह भान हमें होना चाहिए । मानव जीवन इन्द्रिय सुख भोगने के लिए नहीं अपितु प्रभु प्राप्ति के लिए मिला है । हमें अपना प्रयास इसी दिशा में करना चाहिए तभी मानव जीवन सफल हो पाएगा ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 16 नवम्बर 2014 |
233 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 23
श्लो 56 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
संसार में जिस पुरुष के कर्मों से न तो धर्म का संपादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान की सेवा ही सम्पन्न होती है, वह पुरुष जीते ही मुर्दे के समान है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जो धर्मयुक्त कर्म नहीं करता, जिसमें वैराग्य नहीं है और जो प्रभु की सेवा नहीं करता हो वह जीते जी मुर्दे के समान है, ऐसी व्याख्या यहाँ मिलती है ।
हमारा आचरण और कर्म धर्मयुक्त होने चाहिए । मायारूपी संसार में रहकर भी हमारे भीतर वैराग्य होना चाहिए और सबसे जरूरी बात की
किसी-न-किसी रूप में हमारे द्वारा प्रतिदिन प्रभु की सेवा होनी चाहिए । अगर ऐसा नहीं होता तो हमारा मानव जीवन व्यर्थ है ।
प्रभु की सेवा का दैनिक नियम हमारे जीवन में होना अति आवश्यक है । इससे प्रभु से हमारा जुड़ाव बना रहता है । प्रभु सेवा हमारे भीतर प्रभु प्रेम की जागृति करती है और हमारे जीवन को मंगलमय बनाती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 नवम्बर 2014 |
234 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 24
श्लो 30 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
आप वास्तव में अपने भक्तों का मान बढ़ाने वाले हैं । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यह एक शाश्वत सत्य है कि प्रभु भक्तों के मान को बढ़ाते हैं ।
एक भजन की अमर पंक्ति है कि "अपना मान भले टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा " । प्रभु अपने मान की परवाह नहीं करते पर अपने लाड़ले भक्त के मान को कभी खंडित नहीं होने देते ।
जिन्होंने भी भक्ति की है उन्होंने विश्व में सर्वाधिक मान पाया है ।
प्रभु सदैव अपने भक्तों के मान को बढ़ाने वाली श्रीलीलाएं करते हैं । प्रभु नानी बाई का मायरा लेकर आए और अपने भक्त श्री नरसी मेहताजी का मान बढ़ाया । पूरे संसार में ऐसा मायरा न कभी किसी ने देखा था और न ही कभी किसी ने सुना था ।
भक्तों के मान को सदैव बढ़ाने की प्रभु की प्रतिज्ञा है और प्रभु सदैव भक्तों के मान को बढ़ाने के लिए तत्पर रहते हैं ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 23 नवम्बर 2014 |
235 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 24
श्लो 39 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवों के अंतःकरणों में रहने वाला परमात्मा ही हूँ । ....
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु ने उपरोक्त वचन अपने श्रीकपिल अवतार में ऋषि श्री कर्दमजी को उपदेश में कहे ।
पहली बात, प्रभु स्वयंप्रकाश हैं अर्थात स्वयं को प्रकाशित करते हैं । प्रभु के अलावा कोई तेज या प्रकाश का स्त्रोत है ही नहीं ।
दूसरी बात, प्रभु सभी जीवों के अंतःकरण में रहते हैं । हम सभी प्रभु के अंश हैं और प्रभु के अंश होने के कारण प्रभु हमारे भीतर दृष्टा रूप में विराजते हैं । प्रभु की अंतिम खोज हमारे भीतर होनी चाहिए न कि बाहर । जिन संतों को भी प्रभु साक्षात्कार हुआ है उन्हें वह अंतःकरण में ही हुआ है । इसलिए प्रभु की खोज में हमें अंतर्मुखी होना जरूरी है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 18 जनवरी 2015 |
236 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 24
श्लो 45 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
परम भक्तिभाव के द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्री वासुदेव में चित्त स्थिर हो जाने से वे सारे बन्धनों से मुक्त हो गए ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - ऋषि श्री कर्दमजी की संन्यास धर्म पालन करने की अवस्था का यहाँ वर्णन है ।
ऋषि श्री कर्दमजी भक्ति में लग गए और अपना मन प्रभु में लगा लिया । इसके कारण वे अहंकार, ममता, सुख-दुःख आदि से छूटकर उन्होंने अपनी बुद्धि को स्थिर और शान्त कर लिया ।
अंतर्मुख होकर प्रभु में अपने चित्त को स्थित करने के कारण वे तत्काल सारे बंधनों से मुक्त हो गए । जीव के लौकिक बंधनों से मुक्त होने का सबसे सटीक उपाय यही है कि भक्ति करके अपने चित्त को प्रभु में केंद्रित कर लें । इससे वह सभी बंधनों से छूट जाता है अन्यथा लौकिक बंधनों से छूटने का अन्य कोई मार्ग या उपाय नहीं है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 18 जनवरी 2015 |
237 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 25
श्लो 15 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
इस जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है । विषयों में आसक्त होने पर वह बन्धन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता के समक्ष भगवत् धर्म का उपदेश करते समय उपरोक्त बात कही ।
जीव के मन को बंधन और मोक्ष का कारण माना गया है । मन जब विषयों में आसक्त होता है तो वह बंधन में बांधता है । वही मन जब प्रभु में लग जाता है तो वह मोक्ष का कारण बन जाता है ।
इसलिए यह नितांत जरूरी है कि मन को संसार के विषयों से हटाकर प्रभु में लगाना चाहिए । मन इतना चंचल है कि वह विषयों के पीछे ही दौड़ता है और कभी तृप्त नहीं होता । प्रभु में लगने पर ही मन तृप्त हो सकता है । इसलिए भक्ति के द्वारा मन को प्रभु में लगाने का प्रयास करना चाहिए ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 जनवरी 2015 |
238 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 25
श्लो 19 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
योगियों के लिए भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में उपरोक्त बात कही ।
भगवत् प्राप्ति के लिए प्रभु की भक्ति के समान अन्य कोई मंगलमय मार्ग नहीं है । इस बात का स्पष्ट प्रतिपादन प्रभु स्वयं यहाँ पर करते हैं ।
भक्ति का मार्ग सर्वोच्च है और एक अंधा व्यक्ति भी इस पर चलकर प्रभु को प्राप्त कर सकता है । अन्य सभी साधन मार्ग कठिन और दुर्लभ हैं । इसलिए प्रभु स्वयं भक्ति का प्रतिपादन करते हुए इसे प्रभु प्राप्ति का सबसे मंगलमय मार्ग बताते हैं ।
इसलिए जीवन को प्रभु भक्ति में लगाना ही श्रेयस्कर है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 25 जनवरी 2015 |
239 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 25
श्लो 22-23 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... जो मुझमें अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिए सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाए रहते हैं, उन भक्तों को संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु श्री कपिलजी ने भगवती देवहूति माता को उपदेश में उपरोक्त बात कही ।
जो प्रभु से अनन्य भाव से दृढ़ प्रेम करते हैं, जो अपने सभी कर्म प्रभु के लिए और प्रभु को अर्पित करके करते हैं, जो अपने सगे-सम्बन्धियों से भी बढ़कर प्रभु से संबंध रखते हैं, जो प्रभु की कथाओं का श्रवण करते हैं, जो प्रभु की श्रीलीलाओं का कीर्तन करते हैं और जो प्रभु में अपने चित्त को लगाते हैं, ऐसे भक्तों को संसार का कोई भी ताप कष्ट नहीं पहुँचा सकता ।
संसार के ताप हमें निरंतर कष्ट पहुँचाते रहते हैं । उनसे छूटने का सरल मार्ग प्रभु ने स्वयं यहाँ बताया है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 फरवरी 2015 |
240 |
श्रीमद् भागवतमहापुराण
(तीसरा स्कंध) |
अ 25
श्लो 25 |
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
.... उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होगा ।
श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की कथाओं का महत्व बताते हुए उपरोक्त वाक्य प्रभु श्री कपिलजी ने कहे ।
प्रभु की कथा आत्मज्ञान का उदय हमारे भीतर कराती हैं और हमारे हृदय और कानों को पवित्र करती हैं ।
प्रभु कथा के श्रवण से मोक्ष का मार्ग खुल जाता है और हमारे अंतःकरण में प्रभु के लिए श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का विकास होता है । प्रभु को पाने के लिए प्रभु के लिए श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का विकास होना अत्यन्त आवश्यक है । इन तीनों का विकास प्रभु की कथा करवाती है क्योंकि प्रभु कथा हमें प्रभु के दिव्य चरित्र और श्रीलीलाओं से अवगत करवाती है । प्रभु के पराक्रम, ऐश्वर्य एवं प्रभु की कृपा, दया और करुणा से हम रूबरू होते हैं और इस कारण प्रभु के लिए श्रद्धा, प्रेम और भक्ति हमारे अंतःकरण में जागृत होती है ।
प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 फरवरी 2015 |