श्री गणेशाय नमः
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क्रम संख्या श्रीग्रंथ अध्याय -
श्लोक संख्या
भाव के दर्शन / प्रेरणापुंज
1 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 1
श्लो 12
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जब मनुष्य के जन्म-जन्मांतर का पुण्य उदय होता है, तभी उसे इस भागवतशास्त्र की प्राप्ति होती है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमद् भागवतमहापुराण के प्रति आकर्षण मन में हुआ तो यह मानना चाहिए कि यह पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों का प्रभाव है । इसका मतलब यह है कि एक जन्म के पुण्यों के बल पर श्रीमद् भागवतजी प्राप्त नहीं कर सकते । इस तथ्य से यह पता चलता है कि यह कितना विलक्षण, कितना दुर्लभ, भगवत् सिद्धान्तों का अंतिम निष्कर्ष, प्रभु की प्रसन्नता का प्रधान कारण, भक्ति के प्रवाह को बढ़ाने वाला श्रीग्रंथ है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 जून 2012
2 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 1
श्लो 60
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अब (कलियुग में) किसी को पुत्रों (ज्ञान, वैराग्य) के साथ तुम्हारा (भक्ति का) दर्शन भी नहीं होता । विषयानुराग के कारण अंधे बने हुए जीवों से उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब भक्ति माता ने कलिकाल में अपनी और अपने पुत्रों, ज्ञान और वैराग्य की दुर्दशा का कारण देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से पूछा तो उनसे उपरोक्त उत्तर मिला । विषयों में अनुराग के कारण (माया में फँसने पर) न हमारे अंदर सात्विक ज्ञान टिकता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है (उलटे संचय करने की प्रवृत्ति में दिनों दिन वृद्धि होती है) । ज्ञान और वैराग्य के नहीं आने पर इनकी माता भक्ति का भी हमारे जीवन में प्रवेश नहीं होता ।

कलियुग में अधिकतर भक्ति स्वार्थ सिद्धि हेतु होती है, इसलिए वह सात्विक भक्ति नहीं है । सात्विक भक्ति यानी निस्वार्थ बिना किसी हेतु के । सात्विक भक्ति यानी नियमित दैनिक रूप में (जब जरूरत हो तो की, काम हो गया तो भूल गए) ऐसी नहीं । सात्विक भक्ति से ही प्रभु रीझते हैं । स्वार्थ की भक्ति में हमें धन, संपत्ति आदि मिल जाएगी क्योंकि यह सब प्रभु के यहाँ मिट्टी से ज्यादा कुछ नहीं । जब हम प्रभु से मिट्टी मांगते हैं तो प्रभु कहते हैं जितनी चाहो ले जाओ । पर सात्विक भक्ति के बल पर प्रभु भक्त के हो जाते हैं, भक्त के वश में हो जाते है । भक्त के लिए नंगे पाँव दौड़ते हैं (प्रह्लादजी, द्रौपदीजी), भक्त के लिए बिकने को तैयार हो जाते हैं (नरसीजी), भक्त को अपने से बड़ा मान देते हैं (सुदामाजी) ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 जून 2012
3 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 4
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सत, त्रेता और द्वापर - इन तीनों युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे, किन्तु कलियुग में केवल भक्ति ही ब्रह्रासायुज्य (मोक्ष) की प्राप्त कराने वाली है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जैसा कि देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने भक्ति का माहात्म्य बताते हुए कहा कि सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे । "ज्ञान" यानी अध्यात्म ज्ञान, वेद वेदान्त एवं सहस्त्रों अन्य महाग्रंथों द्वारा ज्ञान मार्ग से मुक्ति । "वैराग्य" यानी लौकिक जीवन छोड़कर पर्वतों में, एकांत में वैराग्ययुक्त तप साधना मार्ग से मुक्ति ।

यह दोनों कठिन मार्ग हैं पर कलिकाल में केवल भक्ति ही मोक्ष का सबसे सुलभ एवं एकमात्र साधन है । इसलिए सारहीन होने पर भी राजा श्री परीक्षितजी ने इसी गुण के कारण कलिकाल को सारयुक्त मानकर उसे रहने दिया ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 जून 2012
4 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 6 - 7
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
एक बार जब तुमने (भक्ति ने) हाथ जोड़कर (प्रभु से) पूछा था कि "मैं क्या करूं" ? तब भगवान ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि "मेरे भक्तों का पोषण करो"। तुमने भगवान की वह आज्ञा स्वीकार कर ली, इससे तुम पर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करने के लिए मुक्ति को तुम्हें दासी के रूप में दे दिया और इन ज्ञान और वैराग्य को पुत्रों के रूप में ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने भक्ति माता को यह रहस्य बताया । प्रभु ने मुक्ति को भक्ति की दासी बनाया है । भक्ति से ही कलिकाल में मुक्ति मिलेगी, यह प्रभु द्वारा बनाया नियम है । भक्ति माता को प्रभु ने पुत्र रूप में ज्ञान और वैराग्य दिए । यानी सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में जिन ज्ञान और वैराग्य को पाने के लिए इतना श्रम करना होता था, वह कलिकाल में भक्ति मार्ग में चलने पर स्वतः ही मिल जाते हैं । क्योंकि भक्ति माता जीवन में जब आती हैं तो उनके दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य भी साथ आते हैं और दासी रूप में मुक्ति भी साथ आती है ।

यहाँ संतों से सुनी एक कथा याद आती है । कथा में थोड़ा परिवर्तन करके, ऐसे समझना चाहिए । एक राजा के राजमहल में प्रभु एवं प्रभु के सद्गुणों का वास था । राजा से कुछ गलती हुई और एक-एक करके सभी गुण श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि राजा को छोड़कर जाने लगे । राजा ने किसी को नहीं रोका । अंत में प्रभु जाने लगे तो राजा ने प्रभु के श्रीकमलचरणों को पकड़ लिया, सच्चे पश्चाताप में रोने लगा । प्रभु पिघल गए और रुक गए । सभी गुण जो छोड़कर चले गए थे वे एक-एक करके बिन बुलाए ही स्वतः वापस आ गए क्योंकि वे तो प्रभु की परछाई मात्र हैं । प्रभु जहाँ होते हैं, वे स्वतः ही वहीं रहते हैं ।

ऐसे ही जीवन में अगर हम भक्ति को ले आए तो जीवनकाल में ज्ञान और वैराग्य और अंत समय में मुक्ति को आना ही होगा । यह मेरे प्रभु का शाश्वत नियम है जिसका दर्शन श्रीमद् भागवतजी के उपरोक्त श्लोक में मिलता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 03 जून 2012
5 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 16
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनके हृदय में निरंतर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धन्तःकरण पुरुष स्वप्न में भी यमराज को नहीं देखते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी (जिनका प्रभु से बड़ा निकट का संबंध है) के वाक्य हैं कि जिनके हृदय में निरंतर प्रेमरुपिणी भक्ति निवास करती है, उन शुद्धन्तःकरण पुरुषों को स्वप्न में भी श्री यमदेवजी के दर्शन नहीं होते । यहाँ तीन शब्दों का विशेष महत्व है ।

(पहला शब्द) निरंतर भक्ति यानी यह नहीं कि जरूरत के समय की, फिर भूल गए ।

(दूसरा शब्द) शुद्धन्तःकरण यानी यहाँ पर निरंतर भक्ति, निस्वार्थ भक्ति की बात कही गई है । अशुद्ध अन्तःकरण से की गई भक्ति अर्थात किसी के लिए राग, किसी से द्वेष, किसी मद की लालसा में, किसी लोभ की पूर्ति हेतु की गई भक्ति, जिस इच्छापूर्ति के लिए होती है, वह इच्छा तो पूरी करती है पर ऐसी भक्ति क्योंकि स्वार्थ सिद्धि के लिए की गई होती है, इसलिए विशेष फलदायी नहीं होती है ।

(तीसरा शब्द) स्वप्न में भी ऐसी भक्ति करने वाले को नर्क के दर्शन नहीं होते (यानी असल में नर्क जाने की बात तो छोड़ दें, स्वप्न में भी नर्क के दर्शन नहीं होंगे) ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 जून 2012
6 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 17
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनके हृदय में भक्ति महारानी का निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करने में भी समर्थ नहीं हो सकते ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्लोक में कहा गया है कि प्रेत, पिशाच, राक्षस, दैत्य आदि में भी ऐसी भक्ति करने वाले को स्पर्श तक करने का सामर्थ्य नहीं है यानी भय की सारी शक्तियां भक्त के आगे निष्क्रिय हो जाती है । सच ही तो है कि जिसके सिर पर भक्ति के कारण प्रभु का श्रीहाथ हो, भय वहाँ टिक नहीं सकता क्योंकि भय भी प्रभु भक्त को भयभीत करने के अपराध के कारण प्रभु के भयंकर भय से काँपता है । क्योंकि भक्त पर किया गया अपराध प्रभु कतई सहन नहीं करते (प्रभु के भक्त राजा श्री अम्बरीषजी का तिरस्कार करने वाले ऋषि श्री दुर्वासाजी का उदाहरण इसका प्रमाण है । अपने श्री सुदर्शनराज चक्र को रोकने के लिए प्रभु ने स्‍वयं भी ऋषि श्री दुर्वासाजी को मना कर दिया था और अंत में ऋषि को राजा श्री अम्बरीषजी से ही क्षमायाचना करनी पड़ी । प्रभु ने स्पष्ट कह दिया कि मेरे सुदर्शन को अब मेरा भक्त ही रोक सकता है क्योंकि इस समय मैं मेरे भक्त के अधीन हूँ इसलिए मेरा सुदर्शन भी मेरे भक्त के अधीन है) ।

इस तथ्य का एक और दृष्टान्त संत श्री तुलसीदासजी की जीवनी में साक्षात मिलता है । संत श्री तुलसीदासजी द्वारा अनजाने में रोजाना प्रातःकाल वृक्ष की जड़ में जल अर्पण करने से वहाँ रहने वाले प्रेत तृप्त हो गए और प्रसन्न होकर संत श्री तुलसीदासजी को कुछ मांगने को कहा । संत श्री तुलसीदासजी ने प्रभु श्री हनुमानजी से मिलने का साधन पूछा तो प्रेत ने कहा कि थोड़ी दूर पर श्रीरामकथा हो रही है वहाँ निश्चित रूप से प्रभु श्री हनुमानजी कथा श्रवण करते हुए आपको मिल जाएंगे । संत श्री तुलसीदासजी ने पूछा कि आप इतनी दृढ़ता से कह रहें हैं, इसका कारण । प्रेत ने कहा कि हमें यह जानकारी रखनी होती है क्योंकि हमारा प्रवेश वहाँ निषेध रहता है जहाँ प्रभु, प्रभु भक्त और प्रभु भक्ति के साधन (कथा, कीर्तन इत्यादि) होते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 10 जून 2012
7 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 18
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधन से वश में नहीं किए जा सकते, वे केवल भक्ति से ही वशीभूत होते हैं । इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी प्रमाण सहित एक भगवत् सिद्धांत बताते हैं कि प्रभु जितना ज्यादा और जितनी जल्दी भक्ति से रीझते हैं और वशीभूत होते हैं, उतना तपस्या, वेदाध्ययन, ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग आदि अन्य किसी भी साधन से नहीं होते ।

श्रीगोपीजन की प्रेमाभक्ति इसका साक्षात प्रमाण है । प्रभु प्रेमाभक्ति के कारण भगवती राधा माता के साथ एकरूप होकर श्री राधाकृष्ण युगल सरकार के रूप में स्थित हो गए ।

भक्त शिरोमणि प्रभु श्री हनुमानजी का, दासभक्ति के कारण प्रभु से कितना परम लगाव है । प्रत्येक श्रीराम मंदिर एवं श्रीराम दरबार में प्रभु श्री हनुमानजी तो हैं ही, इसके अलावा अगणित मंदिर सिर्फ मेरे प्रभु श्री हनुमानजी के एकल रूप में मिलेंगे (जहाँ प्रत्यक्ष रूप से प्रभु श्री हनुमानजी के श्रीहृदयकुंज में प्रभु श्री रामजी विराजते हैं । हृदय चीरकर प्रभु के दर्शन कराने की श्रीलीला इसका साक्षात प्रमाण है) ।

भक्ति की महिमा अपरंपार है क्योंकि भक्तों को प्रभु अपनी पलकों पर रखते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 जून 2012
8 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 19
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
मनुष्यों के सहस्त्रों जन्मों के पुण्य-प्रताप से भक्ति में अनुराग होता है । कलियुग में केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है । भक्ति से तो साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - इससे बड़ा और इससे स्पष्ट और बिना किसी किन्तु एवं परंतु के प्रमाण शायद ही कहीं मिलेगा । (कहने वाले देवर्षि प्रभु श्री नारदजी जिन्हें सनकादि ऋषियों ने इसी अध्याय के श्लोक 54 में प्रभु दासों के शाश्वत पथ प्रदर्शक एवं भक्ति के भास्कर (सूर्य) कहा है) ।

सहस्त्रों जन्मों के पुण्यों से भक्ति मिलती है - कलियुग में केवल भक्ति, केवल भक्ति (जोर देने के लिए दो बार यह तथ्य दोहराया गया है) ही सार है । भक्ति से तो साक्षात प्रभु भक्त के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 17 जून 2012
9 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 21
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
बस, बस - व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान-चर्चा आदि बहुत-से साधनों की कोई आवश्यकता नहीं है, एकमात्र भक्ति ही मुक्ति देनेवाली है ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - देवर्षि प्रभु श्री नारदजी कहते हैं कि बस, बस रुको क्योंकि व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान चर्चा आदि बहुत से साधनों की कोई आवश्यकता नहीं है । इसलिए उन्होंने इनकी चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं समझी क्योंकि कलिकाल में एकमात्र भक्ति ही मुक्ति देनेवाली है ।

यहाँ विशेष ध्यान दें "एकमात्र" शब्द पर । देवर्षि प्रभु श्री नारदजी ने एकमात्र कहकर सभी साधनों में सबसे ऊँ‍चा स्थान प्रभु भक्ति को कलिकाल में दिया है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 जून 2012
10 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 56,57 एवं 59
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ऋषियों ने संसार में अनेकों मार्ग प्रकट किए हैं, किन्तु वे सभी कष्टसाध्य हैं और परिणाम में प्रायः स्वर्ग की ही प्राप्ति कराने वाले हैं । अभी तक भगवान की प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो गुप्त ही रहा है । उसका उपदेश करने वाला पुरुष प्रायः भाग्य से ही मिलता है । नारदजी ! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ - ये सब तो स्वर्गादि की प्राप्ति कराने वाले कर्म की ही ओर संकेत करते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री सनकादि ऋषि जो 5-5 वर्ष के बालक के रूप में जान पड़ते हैं पर वे बड़े योगी, बुद्धिमान, विद्वान, पूर्वजों के भी पूर्वज, श्रीबैकुंठधाम में निवास करने वाले, निरंतर श्रीहरि कीर्तन में तत्पर रहने वाले, भगवत् अमृत का रसास्वादन करके उसी में स्थित रहने वाले, एकमात्र भगवत् कथा ही जिनका आधार एवं श्रीहरि शरणम् ही जिनका एकमात्र मंत्र है । ऐसे महान श्री सनकादि ऋषि ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से कहा कि भक्ति के अलावा जितने भी अन्य मार्ग ऋषियों ने प्रकट किए हैं वे कष्टदायक एवं स्वर्गादि की प्राप्ति कराने वाले साधन मात्र हैं ।

भगवत् प्राप्ति कराने वाला गुप्त मार्ग भक्ति का ही है । प्रभु को पाना, प्रभु के बनना, यही अंतिम लक्ष्य मानव का होना चाहिए जिसके लिए एकमात्र और अंतिम साधन भक्ति ही है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 24 जून 2012
11 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 2
श्लो 62
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
सिंह की गर्जना सुनकर जैसे भेड़िए भाग जाते हैं, उसी प्रकार श्रीमद् भागवत की ध्वनि से कलियुग के सारे दोष नष्ट हो जाएंगे ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमद् भागवतजी का इससे सुन्दर और स्‍पष्ट माहात्म्य शायद ही मिलेगा । इस दृष्टान्त में श्रीमद् भागवतजी के श्लोकों को सिंह की गर्जना और कलियुग के दोषों को भेड़िए की संज्ञा दी गई है, जो सटीक है । सिंह को दूर से देखने से अथवा सिंह को अपने समक्ष पाने से तो भेड़िए के प्राण कंठ में आ जाते हैं । पर जैसे सिंह की मात्र गर्जना से ही भयभीत होकर भेड़िया भाग जाता है, वैसे ही कलिकाल के दोष श्रीमद् भागवतजी की गर्जना मात्र से ही भाग खड़े होते हैं ।

फिर उस स्थिति की कल्पना करें, जिस घर में नित्य श्रीमद् भागवतजी की पूजा हो, रोजाना कुछ श्लोकों का नित्य नियम से पाठ हो, वहाँ कलिकाल के दोष कभी ठहर भी सकते हैं क्या ? ऐसा कदापि नहीं हो सकता क्योंकि श्रीमद् भागवतजी तो वहाँ प्रभु प्रेम रस प्रवाहित करने वाली भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को लेकर आनंद उत्‍सव मनाती है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 जुलाई 2012
12 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 3
श्लो 9,24,25 एवं 31
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
क्योंकि जहाँ भी श्रीमद् भागवत की कथा होती है, वहाँ ये भक्ति आदि अपने आप पहुँच जाते हैं । .... इसके श्रवण मात्र से मुक्ति हाथ लग जाती है । श्रीमद् भागवत की कथा का सदा-सर्वदा सेवन, आस्वादन करना चाहिए । इसके श्रवण मात्र से श्रीहरि हृदय में आ विराजते हैं । तपोधनो ! जब तक लोग अच्छी तरह से श्रीमद् भागवत का श्रवण नहीं करते, तभी तक उनके शरीर में पाप निवास करते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्री सनकादि ऋषि ने श्रीमद् भागवतजी का माहात्म्य उपरोक्त श्लोकों में बताया है ।

पहले श्लोक में यह तथ्‍य स्पष्ट होता है कि भक्ति अपने आप कथा श्रवण यानी प्रभु की मनोहर श्रीलीलाओं के श्रवण से आती है । यहाँ विशेष ध्यान "अपने आप" शब्द पर दें । बिना किसी उद्योग या उद्यम के भक्ति आ जाए, तन्मयता से किया कथा श्रवण इसका सबसे सुलभ साधन है ।

दूसरे श्लोक में कहा गया है कि भक्ति आने पर मुक्ति तो आनी ही है क्योंकि प्रभु ने मुक्ति को भक्ति की दासी बनाया है । भक्ति माता जहाँ जाएंगी, दासी मुक्ति पीछे-पीछे वहीं जाएगी ।

तीसरे श्लोक में कहा गया है कि भक्ति आते ही सर्वोत्तम प्रसाद यह मिलता है कि श्रीहरि हृदय में आ विराजते हैं । इस तथ्‍य को ऐसे समझना चाहिए कि श्रीहरि का वास तो सदैव सभी के हृदय में है पर माया में फंसे अज्ञान के कारण हमने भीतर के द्वार बंद कर रखे हैं । भक्ति वह द्वार खोल देती है और जीव का "शिव" से मिलन करवाती है ।

चौथे श्लोक में कहा गया है कि जब तक हम अच्छी तरह श्रीमद् भागवतजी का श्रवण नहीं करते, तभी तक पाप शरीर में निवास करते हैं । यहाँ "अच्छी तरह" शब्द का विशेष महत्‍व है । अगर कथा श्रवण के बाद भी मन में भक्ति का भाव जागृत नहीं होता और इस अभाव के कारण पाप नहीं कटते तो ऐसा "अच्‍छी तरह" श्रवण नहीं करने के कारण ही होता है ।

कथा के भक्तिरस में डूबकर प्रभु की एक-एक श्रीलीलाओं के दर्शन करते हुए प्रभु के ऐश्वर्य, करुणा, कृपा, दया, प्रेम और भक्‍तवात्‍सल्‍यता के दर्शन कर पाना ही "अच्छी तरह" श्रवण का सूचक है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 01 जुलाई 2012
13 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 3
श्लो 42 एवं 43
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिस दुष्ट ने अपनी सारी आयु में चित्त को एकाग्र करके श्रीमद् भागवतामृत का थोड़ा-सा भी रसास्वादन नहीं किया, उसने तो अपना सारा जन्म चांडाल और गधे के समान व्यर्थ ही गॅंवा दिया, वह तो अपनी माता को प्रसव पीड़ा पहुँचाने के लिए ही उत्पन्न‍ हुआ । जिसने इस शुकशास्त्र के थोड़े से भी वचन नहीं सुने, वह पापात्मा तो जीता हुआ ही मुर्दे के समान है । पृथ्वी के भारस्‍वरूप उस पशुतुल्य मनुष्य को धिक्कार है ....।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - बड़ा सटीक व्यंग्‍यबाण रूपी श्लोक है । जिसने कथा श्रवण के द्वारा प्रभु भक्ति के मार्ग पर कदम नहीं बढ़ाया उसे "दुष्ट", "चांडाल" और "गधे" की उपमा दी गई है । उसने अपना मानव जीवन ही व्‍यर्थ कर दिया क्योंकि वह मात्र अपनी माता को प्रसव पीड़ा पहुँचाने के लिए ही उत्‍पन्न हुआ है । उसे जीता जागता मुर्दे के समान बताया गया है, उसे भूमि पर भारस्‍वरूप माना गया है, ऐसे मनुष्य को पशुतुल्‍य मानकर धिक्कारा गया है ।

यह शास्त्र मत है, किसी का व्‍यक्तिगत मत नहीं और सभी धर्मों में कमोबेश "प्रभु मार्ग पर नहीं चलने वालों" को ऐसी चेतावनी कहीं-न-कहीं मिलेगी ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 जुलाई 2012
14 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 3
श्लो 61
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तब भगवान ने अपनी सारी शक्ति भागवत में रख दी, वे अंतर्ध्‍यान होकर इस भागवतसमुद्र में प्रवेश कर गए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जब प्रभु श्रीकृष्णावतार में अपनी श्रीलीलाओं को विश्राम देकर अपने नित्यधाम को जाने लगे, तो श्री उद्धवजी ने प्रभु से निवेदन किया कि आपके नित्यधाम पधारते ही पृथ्वी पर कलिकाल तत्काल आ जाएगा । संसार में दुष्टों का शासन होगा, यहाँ तक कि सत्पु्रुष भी उग्र प्रकृति के हो जाएंगे । अभी तो आपका सगुण रूप भक्तों का आधार है, फिर भक्तों का क्या आधार रहेगा ?

तब मेरे प्रभु अपनी सारी शक्तियाँ श्रीमद् भागवतजी में रखकर, लौकिक रूप से अंतर्ध्‍यान हो गए और श्रीमद् भागवतजी में प्रवेश कर गए । इसलिए ही श्रीमद् भागवतजी को प्रभु की शब्दरूपी साक्षात मूर्ति माना गया है । इनके सेवन, श्रवण, पाठ और दर्शन से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । यह श्रीग्रंथ दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापों की सफाई करके काम, क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय दिलाने वाला साधन है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 08 जुलाई 2012
15 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 3
श्लो 64 एवं 65
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
कलिकाल में यही ऐसा धर्म है, जो दुःख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापों की सफाई कर देता है तथा काम क्रोधादि शत्रुओं पर विजय दिलाता है । अन्य‍था, भगवान की इस माया से पीछा छुड़ाना देवताओं के लिए भी कठिन है, मनुष्य तो इसे छोड़ ही कैसे सकते हैं .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - माया के प्रभाव को दर्शाता यह श्लोक । देवताओं के लिए भी माया से बच पाना कठिन है, तो मनुष्य की क्या औकात । केवल मायापति (प्रभु) को अपनाने पर ही माया हमारा पीछा छोड़ती है ।

कलिकाल में प्रभु की श्रीलीलाओं का कथा श्रवण ही, प्रभु को भक्ति पूर्वक अपनाने का और माया से छूटने का सबसे सशक्त साधन है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 जुलाई 2012
16 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 3
श्लो 67, 68 एवं 69
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
वहाँ तरूणावस्था को प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रों को साथ लिए विशुद्ध प्रेमरूपा भक्ति बार-बार "श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारी ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !" आदि भगवत् नामों का उच्चारण करती हुई अकस्मात प्रकट हो गयीं । सभी सदस्यों ने देखा कि परम सुन्दरी भक्तिरानी भागवत के अर्थों का आभूषण पहने वहाँ पधारीं .... । तब सनकादि ने कहा – "ये भक्तिदेवी अभी-अभी कथा के अर्थ से निकली हैं" .... ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - जितनी प्रबलता से हम कथा श्रवण में प्रभु की श्रीलीलाओं का चिंतन और मनन करते हैं, उससे दोगुनी प्रबलता से भक्ति माता अपने दोनों पुत्रों ज्ञान और वैराग्य को साथ ले प्रभु को पुकारते हुए, श्रीमद् भागवतजी के गहन अर्थों का आभूषण पहने प्रकट होती हैं ।

इस तथ्‍य को इस क्रम में समझना चाहिए । प्रभु की श्रीलीलाओं में गहराई से उतरने पर अर्थ के भाव प्रकट होते हैं, इससे भक्ति का प्राकट्य होता है । तभी सच्चा ज्ञान (अध्यात्म ज्ञान) आता है, तभी वैराग्य (मोह माया के बंधन से किनारा) होता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 15 जुलाई 2012
17 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 3
श्लो 71
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
तुम भक्तों को भगवान का स्वरूप प्रदान करनेवाली, अनन्य प्रेम का सम्पादन करनेवाली और संसार रोग को निर्मूल करनेवाली हो, अतः तुम धैर्य धारण करके नित्य निरंतर विष्णुभक्तों के हृदय में ही निवास करो ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - इन शब्दों पर विशेष ध्यान देना चाहिए "भक्तों को भगवान का स्वरूप प्रदान करने वाली" (भक्ति), "प्रभु में अनन्‍य प्रेम का सम्‍पादन कराने वाली" (भक्ति), संसार के सभी रोगों को निर्मूल यानी निष्क्रिय नहीं, मूल से ही नष्‍ट करने वाली (भक्ति) ।

ऋषि श्री सनतकुमारजी ने भक्ति को विराजने का स्‍थान दिया कि भक्तों के हृदय में नित्‍य निरंतर निवास करें । यहाँ "नित्य निरंतर" शब्द पर विशेष ध्यान दें । भक्ति नित्‍य निरंतर यानी रोजाना और सदैव होनी चाहिए, तभी वह भक्ति कहलाती है । समय-समय पर जरूरत अनुसार स्वार्थ सिद्धि, स्वार्थ पूर्ति हेतु की गई भक्ति सच्ची भक्ति नहीं है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 जुलाई 2012
18 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 3
श्लो 72
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
ये कलियुग के दोष भले ही सारे संसार पर अपना प्रभाव डालें, किन्तु वहाँ तुम पर इनकी दृष्टि भी नहीं पड़ सकेगी । इस प्रकार उनकी आज्ञा पाते ही भक्ति तुरंत भगवद्भक्तों के हृदयों में जा विराजीं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - कलियुग के दोष संसार पर अपना प्रभाव डाल सकते हैं पर सच्ची भक्ति करने वाले सच्चे भक्त पर कलियुग के दोष दृष्टि भी नहीं डाल सकते । कितनी प्रबल व्याख्या है कि अवगुण सच्चे भक्त पर दृष्टि भी नहीं डालते, भक्तों को छू पाना तो दूर और भक्तों पर प्रभाव करना तो बहुत दूर की बात है ।

इस व्याख्या को पलट कर देखें तो पाएंगे कि अगर हमारे में अवगुण, कलिकाल के दोष समाप्‍त हो रहे हैं तो ही हमें मानना चाहिए कि हमारी भक्ति सार्थक और सही दिशा में बढ़ रही है । अगर ऐसा नहीं हो रहा तो हमारी भक्ति सार्थक और सही दिशा में नहीं बढ़ रही है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 22 जुलाई 2012
19 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 3
श्लो 73
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जिनके हृदय में एकमात्र श्रीहरि की भक्ति निवास करती है, वे त्रिलोकी में अत्यंत निर्धन होने पर भी परम धन्‍य हैं, क्योंकि इस भक्ति की डोरी से बँधकर तो साक्षात भगवान भी अपना परमधाम छोड़कर उनके हृदय में आकर बस जाते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - यह मेरा बहुत प्रिय श्लोक है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण भक्तराज श्री सुदामाजी एवं भक्तराज श्री नरसीजी हैं । भगवती मीराबाई की सुन्दर रचना "पायोजी मैंने रामरतन धन पायो" को प्रमाणिकता देता श्रीमद् भागवतजी का एक अनमोल श्लोक ।

जिनके हृदय में श्रीहरि की भक्ति निवास करती है, वे पृथ्वी पर ही नहीं, त्रिलोकी (विशेष ध्यान दें त्रिलोकी शब्‍द पर) में लौकिक दृष्टि से निर्धन होते हुए भी परम धनवान, परम धन्य हैं । क्योंकि भक्ति की डोरी से बँधकर भगवान (विशेष ध्यान दें कि प्रभु हमारे जीवन में कैसे आते हैं - भक्ति की डोरी से बँधकर) अपना परमधाम छोड़कर भक्त के हृदय में आ विराजते हैं । राजा श्री बलिजी ने श्रीवामन अवतार में अपने आपको प्रभु को समर्पित कर दिया था । इस समर्पण के कारण प्रभु राजा श्री बलिजी के द्वारपाल बन सकते हैं, तो क्या हमारा समर्पण होने पर प्रभु हमारे हृदय में भी नहीं आ सकते ? समर्पण होने पर प्रभु निश्चित आएंगे ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 जुलाई 2012
20 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 4
श्लो 11-14
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
जो लोग सदा तरह-तरह के पाप किया करते हैं, निरंतर दुराचार में ही तत्पर रहते हैं और उलटे मार्गों पर चलते हैं तथा जो क्रोधाग्नि से जलते रहनेवाले, कुटिल और कामपरायण हैं, वे सभी इस कलियुग में सप्ताहयज्ञ से पवित्र हो जाते हैं । जो सत्‍य से च्यु्त, माता-पिता की निन्दा करनेवाले, तृष्णा के मारे व्याकुल, आश्रम धर्म से रहित, दम्भी, दूसरों की उन्‍नति देखकर कुढ़नेवाले और दूसरों को दुःख देनेवाले हैं, वे भी कलियुग में सप्ताहयज्ञ से पवित्र हो जाते हैं । जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्ण की चोरी, परस्त्रीगमन और विश्वासघात – ये पांच महापाप करनेवाले, छल छद्मपरायण, क्रूर, पिशाचों के समान निर्दयी, ब्राह्मणों के धन से पुष्ट होने वाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुग में सप्ताहयज्ञ से पवित्र हो जाते हैं । जो दुष्ट आग्रहपूर्वक सर्वदा मन, वाणी या शरीर से पाप करते रहते हैं, दूसरे के धन से पुष्‍ट होते हैं तथा मलिन मन और दुष्ट हृदयवाले हैं, वे भी कलियुग में सप्ताहयज्ञ से पवित्र हो जाते हैं ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु के बारे में सुनने, समझने, मनन करने, चिंतन करने का अदभुत प्रभाव यहाँ देखें ।

यहाँ गिनाएं दुर्गुणों में से कोई-न-कोई प्रायः सभी कलियुग वासियों में कमोबेश मिलेंगे । मन, वाणी, शरीर से पाप करना, दुराचार करना, उलटे मार्ग पर चलना, क्रोधाग्नि में जलना, कुटिलता, कामपरायण होना, तृष्णा के मारे व्याकुल, आश्रम धर्म से रहित, दम्‍भी, दूसरों की उन्‍नति देखकर कुढ़ना, दूसरों को दुःख देना, मदिरापान, चोरी, परस्त्रीगमन, विश्वासघात, छल-कपट, क्रूरता, निर्दयता, मलिन मन, दुष्ट हृदय इत्यादि ।

इन दुर्गुणों का नाश कर एवं मन की मलिनता को खत्म कर हमें पवित्र करने का एकमात्र साधन प्रभु की कथा, श्रीलीलाओं को सुनना, समझना, मनन और चिंतन करना है । ऐसी अमृतमय सिंचाई से हृदय पटल पर सद्गुणों के अंकुर फूटने लगते हैं क्योंकि अमंगल हरने वाली और मंगल करने वाले प्रभु की मंगलमयी भक्ति जागृत होती है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 29 जुलाई 2012
21 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 4
श्लो 79-80
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है, इसे आप "मैं" मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को "अपना" कभी न मानें । इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्‍तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें । बस, एकमात्र वैराग्य-रस के रसिक होकर भगवान की भक्ति में लगे रहें । भगवत् धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है, निरंतर उसी का आश्रय लिए रहें । अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें । भोगों की लालसा को पास न फटकने दें तथा जल्दी–से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान की कथाओं के रस का ही पान करें ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमद् भागवत महापुराण की यह पहली विस्तृत कथा श्री आत्मदेव ब्राह्मण की है जिन्होंने प्रारब्ध के विपरीत पुत्र चाहा और धुंधकारी नाम का कुपुत्र हुआ । उसके कारण सब कुछ स्वाहा होने पर फूट-फूट के रोते हुए श्री आत्मदेवजी को श्री गोकर्णजी का श्रेष्‍ठ उपदेश ।

विशेष ध्‍यान दें इन पंक्तियों पर कि संसार को रात दिन क्षणभंगुर जान देखो क्योंकि ऐसा देखने वालों को किसी भी वस्तु से राग (लगाव) नहीं होगा । राग खत्‍म हुआ और वैराग्‍य उत्पन्न होते ही हम भक्तिरस के प्रवाह में बहने योग्‍य बन जाएंगे । भगवत् धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है उसका नित्‍य आश्रय लेकर रखें । भोगों की लालसा से बचें, दूसरों के गुण दोष का व्यर्थ विचार करना छोड़ दें (भोगों की लालसा और दूसरों के गुण दोष में ही लग कर हमारे मानव जीवन का कितना बड़ा हिस्सा हम नष्‍ट कर देते हैं) । एकमात्र प्रभु सेवा और प्रभु की कथा का रसपान करें ।

कितना भव्य, श्रेष्ठ और स्पष्ट उपदेश मानव जीवन के उद्देश्य के बारे में ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 अगस्‍त 2012
22 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 5
श्लो 40-41
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
भगवान ! आप सारे संसार के साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ । आप मुझे कृपा करके धुंधकारी की मुक्ति का साधन बताइए । गोकर्ण की यह प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव ने दूर से ही स्पष्ट शब्दों में कहा- "श्रीमद् भागवत से मुक्ति हो सकती है, इसलिए तुम उसका सप्ताह-पारायण करो ।" सूर्यदेव का यह धर्ममय वचन वहाँ सभी ने सुना ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - विधिपूर्वक श्री गयाजी में पिण्डदान के पश्चात एवं अनेकों शास्त्रों को उलट पुलट कर देखने के बाद भी जब श्री गोकर्णजी को धुंधकारी के प्रेत योनि से मुक्ति का साधन नहीं मिला तो उन्होंने प्रभु श्री सूर्यनारायणजी की स्तुति की ।

स्तुति के शब्दों पर ध्यान दें जिसमें कहा गया है कि भगवान आप सारे संसार के साक्षी हैं । हमें यह समझना चाहिए कि हम जो भी छुपकर गुप्तरूप से भी करते हैं उसके साक्षी भी प्रभु हैं । यह सब जानते तो हैं पर अगर हम इस तथ्‍य को मानने भी लगेंगे तो छुपकर या गुप्तरूप से भी गलत कार्य या पापकर्म करने से हम बच पाएंगे ।

दूसरी बात कि यहाँ प्रभु ने स्‍वयं (श्री सूर्यनारायणजी के रूप में) श्रीमद् भागवतजी को मुक्ति का साधन बताया जहाँ अन्य प्रयोजन विफल हो चुके हो । श्रीमद् भागवतजी के माहात्म्य का स्पष्ट दर्शन यहाँ प्रभुवाणी द्वारा मिलता है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 05 अगस्‍त 2012
23 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 5
श्लो 58-60
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
अस्थियाँ ही इस शरीर के आधार स्‍तम्‍भ हैं, जो नस-नाड़ीरूप रस्सियों से बंधा हुआ है, ऊपर से इस पर मांस और रक्‍त थोपकर इसे चर्म से मढ़ दिया गया है । इसके प्रत्‍येक अंग से दुर्गन्‍ध आती है क्‍योंकि है तो यह मल-मूत्र का भाण्‍ड ही । वृद्धावस्‍था और शोक के कारण यह परिणाम में दुःखमय ही है, रोगों का तो घर ही ठहरा । यह निरंतर किसी-न-किसी कामना से पीड़ित रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती । इसे धारण किए रहना भी एक भार ही है, इसके रोम-रोम में दोष भरे हुए हैं और नष्‍ट होने में इसे एक क्षण भी नहीं लगता । अन्‍त में यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं, कोई पशु खा जाता है तो यह विष्‍ठा हो जाता है और अग्नि में जला दिया जाता है तो भस्‍म की ढेरी हो जाता है । ये तीन ही इसकी गतियां बताई गई हैं । ऐसे अस्थिर शरीर से मनुष्‍य अविनाशी फल देने वाला काम क्‍यों नहीं बना लेता ?


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - कितना सटीक विश्लेषण मानव शरीर की बनावट का है । इस मानव शरीर को रोगों का घर, रोम-रोम में दोष भरा हुआ बताया है और इसे नष्ट होने में क्षणभर भी नहीं लगता । कितनी सटीक व्याख्या । फिर शरीर के नाश होने पर इसकी तीन गति बताई गई है और फिर वह स्वर्णिम उपदेश कि ऐसे अस्थिर शरीर से मनुष्‍य अविनाशी फल देने वाला काम क्यों नहीं बना लेता ? प्रभु भक्ति, प्रभु प्राप्ति की तरफ मानव जीवन को मोड़ना ही हमारे मानव शरीर का सर्वश्रेष्ठ उपयोग है । मानव शरीर, मानव जीवन एक स्वर्णिम अवसर है प्रभु भक्ति कर प्रभु प्राप्ति का, जिसे हम व्यर्थ के पचड़ों में पड़ कर गंवा देते हैं ।

संसार नहीं करने की बात कहीं भी नहीं कही गई है पर संसार करते हुए अपने मानव जीवन का मूल उद्देश्य स्पष्ट रखना और उसे प्राप्त करने को प्राथमिकता देना, यही संकेत यहाँ पर स्पष्ट रूप से है ।

हम अपने मानव जीवन, मानव शरीर को विनाश होने वाले फल की प्राप्ति में लगा देते हैं जैसे सम्‍पत्ति, धन इत्यादि के संग्रह में । इतिहास के चक्रवर्ती राजाओं, महाराजाओं की सम्पत्ति, धन क्या आज मौजूद है ? नहीं उसका विनाश हो चुका है । पर प्रभु भक्ति द्वारा जीवन की अंतिम गति यानी प्रभु प्राप्ति करना, यह अविनाशी फल है क्योंकि यही हमें सदैव के लिए आवागमन से मुक्त करा प्रभु के श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए हमें स्थित कर देता है । यही वह फल है जो सनातन है, शाश्वत है, अविनाशी है ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 अगस्‍त 2012
24 श्रीमद् भागवतमहापुराण
(माहात्म्य)
अ 5
श्लो 66
श्लोक का हिंदी अनुवाद -
यह भागवतकथा रूप तीर्थ संसार के कीचड़ को धोने में बड़ा ही पटु है । विद्वानों का कथन है कि जब यह हृदय में स्थित हो जाता है, तब मनुष्‍य की मुक्ति निश्‍चित ही समझनी चाहिए ।


श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - प्रभु की कथा को तीर्थ की संज्ञा दी गई है । प्रभु कथा से जीवन में पवित्रता आती है क्योंकि इससे संसार के कीचड़ धुल जाते हैं । ऋषियों और संतों का स्‍पष्‍ट मत रहा है कि प्रभु की कथा द्वारा प्रभु के लिए प्रेम, प्रभु की भक्ति जीवन में आ जाए तो मनुष्‍य की मुक्ति निश्चित ही समझनी चाहिए ।

जिन्होंने (ऋषियों और संतों ने) प्रभु प्राप्ति के इस मार्ग का अनुगमन किया है उन्होंने अपने अनुभव के बल पर ऐसा कहा है ।

उदाहरण स्‍वरूप हमने अग्नि को स्‍पर्श करने का प्रयास किया और हमें ताप लगा । हम अपने अनुभव से बच्‍चे को मना करते हैं कि ऐसा मत करना, नहीं तो हाथ जल जाएगा । बच्चा अगर हमारी बात मान लेता है तो उसका हाथ जलने से बच जाता है ।

हम भी अगर ऋषियों और संतों की बात मान लें और प्रभु के मार्ग पर चले, तो संसार के ताप में जलने से बच जाएंगे और सदैव के लिए आवागमन से भी मुक्त हो जाएंगे ।

प्रकाशन तिथि : रविवार, 12 अगस्‍त 2012