श्री गणेशाय नमः
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प्रभु प्रेरणा से लेखन द्वारा चन्द्रशेखर करवा

लेख सार : हम प्रभु से किसी भी परिस्थिति में क्या निवेदन करते हैं इसकी हमें समीक्षा करनी चाहिए और तीन प्रकार के निवेदनों में सर्वोत्तम प्रकार का निवेदन ही सदैव चुनना चाहिए । पूरा लेख नीचे पढ़ें -



हम अपनी विपत्ति की बेला पर या किसी मांग की अवस्था में प्रभु से क्या निवेदन करते हैं और कैसे निवेदन करते हैं यह हमें देखना चाहिए । निवेदन के तीन प्रकार का हम यहाँ पर विश्लेषण करेंगे । उसमें से पहला प्रकार साधारण प्रकार है जो हम सभी करते हैं । उसमें से दूसरा प्रकार मध्यम प्रकार है और तीसरा प्रकार प्रभु से निवेदन करने का सर्वोत्तम प्रकार है ।


पहले प्रकार की सबसे पहले बात करते हैं । हम अपनी विपत्ति या मांग प्रभु के समक्ष रखते हैं और प्रभु से निवेदन करते हैं कि ऐसा करें । यह बहुत साधारण बात हो गई पर अधिकतर लोग सदैव ऐसा ही करते हैं । अंतर्यामी और सर्वसामर्थ्‍यवान प्रभु को हम बता रहे हैं कि वे क्या करें । उदाहरण स्वरूप देखें कि बेटी की शादी के समय हम प्रभु से कहते हैं कि इस वर से और इस घराने में हमारी बेटी की शादी हो जाए । हमने ही चुनाव कर लिया और उसे पूरी करने की जिम्मेदारी प्रभु पर डाल दी । प्रभु को यहाँ हमने इस लायक नहीं समझा कि प्रभु को मौका दे कि वे अपनी मर्जी का करें ।


दूसरा प्रकार पहले प्रकार से थोड़ा बेहतर होता है पर सर्वश्रेष्ठ नहीं होता । दूसरे प्रकार में थोड़ी-सी असाधारण बात तब होती है जब हम अपनी मर्जी न रखकर प्रभु से कह देते हैं कि जैसा हमारे लिए उचित हो वैसा करें । यहाँ पर भी हमने प्रभु पर पूरा विश्वास नहीं जताया और जोड़ दिया कि जैसा हमारे लिए उचित हो वैसा करें । प्रभु, जो सब कुछ जानने वाले हैं, क्या उन्हें बताने की जरूरत है कि हमारे लिए उचित या अच्छा क्या है ? उदाहरण स्वरूप बेटी के विवाह का प्रसंग ही देखें । अधिकतर लोग यह अरदास करते हुए मिलेंगे कि जैसा हमारी बेटी के लिए उचित हो वैसा करें ।


तीसरा प्रकार पहले दो प्रकार से बेहतर ही नहीं बल्कि सबसे सर्वश्रेष्ठ है । सबसे सर्वोत्तम बात तब होती है जब हम प्रभु से कहते हैं कि हमारी इच्छानुसार भी न करें, जो हमारे लिए उचित हो वैसा भी न करें बल्कि जिसमें प्रभु आपकी रजा हो और आपकी प्रसन्नता हो वैसा करें । यहाँ पर हमने प्रभु को स्वतंत्रता दे दी कि प्रभु आपकी जैसी इच्छा हो वैसा हमारे लिए करें । फिर उदाहरण स्वरूप बेटी के विवाह का प्रसंग ही देखें । यहाँ पर हम प्रभु से कहते हैं कि जो वर आपको उचित लगे, जो घराना आपको उचित लगे, जो आपकी इच्छानुसार हो वैसा ही बेटी के लिए करें ।


जब हम प्रभु को परमपिता मानकर पूर्ण स्वतंत्रता दे देते हैं और अपना पूरा विश्वास प्रभु के ऊपर दृढ़ कर लेते हैं और प्रभु की इच्छा को सर्वोपरि स्थान देते हैं तो हमारा निश्चित मंगल और कल्याण होता है । एक साधारण लौकिक पिता पर जब अपने संतान का दायित्व आता है तो वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयत्न करता है, तब जरा सोचिए कि अगर यह दायित्व हम परमपिता पर छोड़ दें तो क्या वे हमारा भरपूर हित करने से कभी चूकेंगे ।


इसलिए जीवन में सदैव प्रभु को आगे करके जीवन की बागडोर प्रभु को सौंप देनी चाहिए और प्रभु की रजा में ही राजी रहना चाहिए । यह भक्ति का सिद्धांत है पर भक्ति जब सच्ची होती है तभी ऐसा हो पाता है । जब हम प्रभु की इच्छा का जीवन में आदर करना सीख जाते हैं तभी सही मायने में हम भक्त बनते हैं ।