लेख सार : भक्ति के द्वारा जीवन में प्रभु के समीप जाने का प्रयास सदैव करते रहना चाहिए । भक्ति के द्वारा जीवन में प्रभु को लाना ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
जैसे हम किसी तीर्थ में पहुँच कर यह नहीं मान सकते कि हमें प्रभु विग्रह के दर्शन हो गए, हमें वहाँ स्थित मंदिर में जा कर प्रभु प्रतिमा के समक्ष खड़े होने पर ही प्रभु के दर्शन का लाभ मिलता है । वैसे ही अपने जीवन को प्रभु से जोड़ने पर ही जीवन में प्रभु कृपा के दर्शन होते हैं ।
जैसे मंदिर में प्रभु की प्रतिमा एक जगह गर्भगृह में स्थित होती है और हमें चलकर सामने आना पड़ता है, वैसे ही जीवन में प्रभु राह पर चलकर हमें प्रभु के सामने आना होता है । यह प्रभु की राह क्या है - यह भक्ति है । जीवन में भक्ति आती है तो ही जीवन धन्य होता है ।
इधर उधर उलझा जीवन हमारा पतन करवाएगा । प्रभु के श्रीकमलचरणों में भक्ति द्वारा उलझा जीवन हमारा उत्थान करवाएगा और अन्त में हमें सदैव के लिए आवागमन से मुक्ति देगा ।
हमें अपने जीवन में भक्ति अर्जित कर प्रभु के समीप आना चाहिए । प्रभु के समीप आते ही हमारा जीवन पवित्र हो जाता है, बुराइयां हमें छोड़कर भागती हैं और अच्छाइयां आकर जीवन में बस जाती हैं । यह सिद्धांत है कि प्रभु की छत्रछाया में आते ही बुराइयों को जीवन से भागना पड़ेगा और अच्छाइयों को जीवन में आना पड़ेगा ।
भक्ति के कारण प्रभु को जीवन में लाने पर कलियुग के लोगों ने भी सतयुग जैसा आचरण किया है और अपने जीवन से प्रभु को दूर करने पर सतयुग, त्रेता और द्वापर में भी लोगों ने कलियुग जैसा आचरण किया है । हिरण्यकशिपु, रावण, कंस आदि इसके उदाहरण हैं ।
सिद्धांत स्पष्ट है कि प्रभु को जीवन में लाने पर प्रभु कृपा होती है और उस प्रभु कृपा के कारण युग के दोष (जैसे कलियुग के दोष) भी हम पर प्रभाव नहीं करते । इसके विपरीत जीवन में प्रभु से दूर रहने पर युग की अच्छाइयां और श्रेष्ठ आचरण भी हमसे दूर हो जाते हैं । जैसे सतयुग, त्रेता और द्वापर की अच्छाइयां भी उस युग में जन्मे दुष्टों के आचरण में नहीं आई क्योंकि उन्होंने प्रभु को अपने जीवन से दूर रखा ।
सबसे श्रेष्ठ उदाहरण हिरण्यकशिपु और भक्त श्री प्रह्लादजी का है । एक ही युग में, एक ही राक्षस कुल में पिता पुत्र होते हुए एक का पतन और दूसरे का उत्थान हुआ । उत्थान भी ऐसा कि श्री प्रह्लादजी के अलावा उनकी आने वाली राक्षस पीढ़ियों को भी मेरे प्रभु ने अभयदान दे दिया । उन्हीं की पीढ़ी में हुए राजा श्री बलिजी के समय में देने वाले प्रभु, मांगने वाले बन गए और राजा श्री बलिजी की मर्यादा और प्रतिष्ठा को प्रभु ने बढ़ाया ।
हिरण्यकशिपु के पतन का कारण क्या था - जीवन में प्रभु से दूर जाना । उसने प्रभु को कभी स्वीकारा नहीं । श्री प्रह्लादजी के उत्थान का कारण क्या था - जीवन में प्रभु को लाना । यही कारण था कि हिरण्यकशिपु को कहीं प्रभु नहीं दिखे और श्री प्रह्लादजी को कण-कण में प्रभु के दर्शन हुए । हिरण्यकशिपु ने जब पूछा कि क्या इस खंभे में भी प्रभु हैं तो श्री प्रह्लादजी ने बेहिचक कह दिया कि उन्हें वहाँ भी साक्षात प्रभु के दर्शन हो रहें हैं । हिरण्यकशिपु ने खंभे को गदा से तोड़ा और अपने भक्त की वाणी को सत्य करने के लिए प्रभु खंभे से प्रकट हुए ।
जिस-जिसने भी अपने जीवन को प्रभु से जोड़ा है उसको प्रभु कृपा जीवन में मिली है जिसके कारण उसे उत्थान और प्रतिष्ठा जीवन में मिली है । बड़ी लम्बी सूची है - भगवती मीरा बाई, पांच पाण्डव, श्री नरसी मेहता, भक्त सुदामाजी, श्री ध्रुवजी, संत तुलसीदासजी, भक्त सूरदासजी और श्री भक्तमालजी में वर्णित अगणित भक्त । सूची इतनी लम्बी है कि उसको पूरा लिखना संभव ही नहीं है ।
इसलिए जीवन में भक्ति अर्जित कर प्रभु के समीप जाना चाहिए । प्रभु को जीवन में लाना और अपने जीवन को प्रभुमय बनाना हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए । जिन-जिन भक्तों ने ऐसा किया है उनका उद्धार हुआ है और जो दुष्ट ऐसा नहीं कर पाए उनका पतन हुआ है ।
जीवन को सफल बनाना है तो जीवन में प्रभु के समीप जाना ही पड़ेगा । इसके अलावा कोई विकल्प ही नहीं है । जीवन में प्रभु को लाना मानव जीवन की जीत है, मानव जीवन की सफलता है और मानव जीवन का उद्देश्य भी है । इसलिए भक्ति के द्वारा जीवन में प्रभु के समीप जाने का प्रयास सदैव करते रहना चाहिए ।