लेख सार : "प्रभु से चाहना" और "प्रभु को चाहना" इन दोनों बातों में बहुत बड़ा अंतर है । "प्रभु से चाहना" एक साधारण बात है पर "प्रभु को चाहना" भक्ति है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
प्रभु से हम सभी को बहुत कुछ चाहिए । हमारी लम्बी-लम्बी सूचियां होती है । हम जब यज्ञ, पूजा-पाठ करवाते हैं तो भी संकल्प में बहुत कुछ चाहते हैं । धन, सम्पत्ति, पुत्र, पौत्र, आरोग्य, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि बहुत लम्बी सूची होती है । पर कितने ऐसे लोग होंगे जिन्हें प्रभु से कुछ नहीं चाहिए, सिर्फ प्रभु से प्रभु ही चाहिए ?
प्रभु भी ऐसे बिरलों की बाट जोहते हैं जिन्हें सिर्फ प्रभु ही चाहिए क्योंकि मंदिरों में प्रभु से कुछ चाहने वालों की ही भीड़ होती है पर प्रभु को चाहने वाला कोई नहीं होता ।
प्रभु से कुछ चाहने वाले और प्रभु को चाहने वालों में बहुत बड़ा अंतर होता है । प्रभु से कुछ चाहने वाले का जीवन एक साधारण मानव जीवन होता है और प्रभु को चाहने वाले का जीवन मानव जीवन की पराकाष्ठा होती है । प्रभु से कुछ चाहना एक साधारण सी बात है और प्रभु को चाहना एक सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है । प्रभु से कुछ चाहा तो हमने एक साधारण मानव जीवन जिया पर प्रभु को चाहा तो हम मानव जीवन की श्रेष्ठतम ऊँचाई तक पहुँच गए ।
भक्तों ने प्रभु से यही चाहा कि उनकी सभी कामनाएं नष्ट हो जाएँ, कामनाओं के बीज अंकुरित ही न हो जिससे जीवन में कभी भी प्रभु से कुछ मांगने की जरूरत ही न हो । प्रभु से कुछ नहीं मांगना और सिर्फ प्रभु से प्रभु को मांगना एक बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य तो प्रभु के दर पर मिट्टी के समान हैं । प्रभु इन्हें देने में विलम्ब नहीं करते । किसी को मिट्टी देने में क्या हम देर करते हैं ? पर कोई प्रभु को ही मांग लेता है तो फिर प्रभु उसके प्रेम बंधन में आ जाते हैं ।
हम प्रभु से जब प्रभु को ही मांगते हैं तो सभी अनुकूलता, सुख, सम्पत्ति स्वतः ही प्रभु के साथ चले आते हैं । उन्हें मांगने की जरूरत नहीं पड़ती । एक प्राचीन कथा है । एक राजा था जो प्रभु का भक्त था । उसकी भक्ति सच्ची थी और प्रभु उसके साथ उसके महल में साक्षात रूप में निवास करते थे । एक दिन उस राजा से कुछ भूल हो गई । उसके पास से सभी सद्गुण एक-एक करके उसे छोड़कर जाने लगे । पहले कीर्ति गई, फिर ऐश्वर्य गया और इस तरह सभी सद्गुण एक-एक करके हर दिन उसे छोड़कर जाने लगे । राजा दुःखी था पर उसने किसी को नहीं रोका । राजा ने देखा कि एक दिन प्रभु उसे छोड़कर जाने लगे । राजा रोने लगा और अपनी भूल की सच्चे मन से क्षमा याचना करने लगा । उसके आँखों से प्रायश्चित के सच्चे आंसू निकलने लगे । उसने अभी तक किसी को नहीं रोका था पर वह प्रभु को रोककर प्रभु के आगे लेट गया । प्रभु पिघल गए और उसे क्षमा करके रुक गए । राजा ने देखा कि उसी समय एक-एक करके सद्गुण जो उसे छोड़कर चले गए थे वे सब बिना बुलाए ही लौट कर आने लगे । राजा संकेत समझ गया कि सभी सद्गुण प्रभु की परछाई मात्र हैं । प्रभु जहाँ बिराजेंगे उन्हें वहाँ स्वतः आना ही होता है । कीर्ति, ऐश्वर्य आदि जो-जो सद्गुण गए थे वे सभी अपने यथास्थान लौट आए । राजा सद्गुणों को रोकता तो कोई सद्गुण नहीं रुकते इसलिए राजा ने उन्हें नहीं रोका । राजा ने प्रभु को रोका क्योंकि प्रभु कृपालु एवं दयालु हैं और इस तरह सभी सद्गुणों को लौटकर आना पड़ा ।
सूत्र क्या है कथा का - अगर हम प्रभु से कुछ चाहते हैं तो प्रभु उस जरूरत की पूर्ति करेंगे पर अगर हम प्रभु को चाहते हैं तो भी उस जरूरत की पूर्ति प्रभु द्वारा स्वतः ही हो जाएगी । इसलिए हमें प्रभु से न चाह कर प्रभु को ही चाहना चाहिए ।
मानव जीवन का उद्देश्य यही होना चाहिए कि हमें प्रभु से कुछ नहीं मांगना, प्रभु से प्रभु को ही मांग लेना । इसे ही भक्ति कहते हैं ।
"प्रभु से चाहना" और "प्रभु को चाहना" - इन दोनों वाक्यों में सिर्फ एक शब्द का अंतर है । पर वह अंतर इतना बड़ा है कि पूरे मानव जीवन को धन्य कर देने का सामर्थ्य रखता है ।
लाखों लोग प्रभु से कुछ चाहते हैं पर इन लाखों में से एक बिरला ही निकल कर आता है जो प्रभु को चाहता है ।
सच्ची भक्ति सकाम नहीं होकर निष्काम होती है । सच्चा भक्त प्रभु से कुछ नहीं चाहता, सिर्फ प्रभु को ही चाहता है । ऐसे भक्त को प्रभु अपनी हथेली पर रखते हैं और अपना सब कुछ, यहाँ तक कि अपने स्वयं को भी उस पर न्यौछावर कर देते हैं ।