लेख सार : हम प्रभु का चिंतन करते हैं तो हमारी चिंता करने की जिम्मेदारी प्रभु निभाते हैं । इसलिए जीव को चिंता के पल में भी प्रभु का चिंतन ही करना चाहिए । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
प्रभु का चिंतन करना हमारा काम है और हमारी चिंता करना प्रभु का काम । हमें चिंता के समय भी प्रभु का चिंतन करना चाहिए और प्रभु को हमारी चिंता करने देना चाहिए । पर हम खुद अपनी ही चिंता में मग्न हो जाते हैं जिस कारण प्रभु का चिंतन भी हमसे छूट जाता है ।
प्रभु कहते हैं कि पहले अपनी चिंता स्वयं करके अपनी मन की निकाल लो । अपनी चिंता से अपना भला कभी नहीं हो सकता, प्रभु चिंतन से ही हमारा भला होगा । इसके दो जीवन्त उदाहरण हैं । पहला श्री गजेन्द्रजी का और दूसरा भगवती द्रौपदीजी का ।
श्री गजेन्द्रजी को जब ग्राह ने पकड़ा तो उन्होंने अपनी खूब चिंता की । उनका चिंतन प्रभु के लिए नहीं हुआ । उन्होंने पहले अपना बल लगाया, अपनी बुद्धि लगाई फिर परिवार का बल और बुद्धि लगी पर वे फंसते चले गए । फिर अन्त समय आता देख उन्होंने प्रभु का चिंतन किया । प्रभु का चिंतन हुआ और फिर प्रभु के मंगल नाम का उच्चारण हुआ और हरि नाम का उच्चारण पूरा होने से पहले ही उनकी चिंता के कारण (ग्राह) का प्रभु ने अन्त कर दिया ।
प्रभु का चिंतन तभी संभव होता है जब हमारा ध्यान हमारी चिंता से हटता है क्योंकि खुद की चिंता और प्रभु का चिंतन एक समय में एक साथ हो ही नहीं सकते । प्रभु का चिंतन करना है तो अपनी चिंता भूलनी होगी । प्रभु का चिंतन करते ही हमारी चिंता का दारोमदार प्रभु पर आ जाता है । फिर हमारी चिंता हमारी न रहकर प्रभु की चिंता बन जाती है जिसके निवारण की जिम्मेदारी प्रभु की हो जाती है ।
दूसरा उदाहरण भगवती द्रौपदीजी का है । भगवती द्रौपदीजी ने भी स्वयं की चिंता करी जब भरी सभा में उनका चीरहरण होने वाला था । उन्होंने सोचा कि उनके पांच पतियों को, ससुर को, गुरुजन को उनकी चिंता होगी और वे उन्हें इस विपत्ति से बचा लेंगे । ऐसे में प्रभु का चिंतन नहीं हुआ पर जब लाज जाने की बेला आई तो प्रभु का चिंतन हुआ । चिंतन होते ही प्रभु ने लाज बचाई और उनकी चिंता का तत्काल अन्त किया ।
दोनों उदाहरणों से दो सूत्र निकलते हैं । पहला सूत्र यह है कि अगर हमने स्वयं की चिंता की तो हमारी चिंता बढ़ेगी और चिंता का समाधान नहीं होगा । दूसरा सूत्र यह है कि अगर हमने प्रभु का चिंतन किया तो हमारी चिंता घटेगी और अन्त में हमारी चिंता समाप्त हो जाएगी ।
सिद्धांत स्पष्ट है कि जैसे ही प्रभु का सच्चा चिंतन शुरू होता है हमारी चिंता जानी शुरू हो जाती है । जैसे-जैसे प्रभु चिंतन को भक्ति का बल मिलता है, चिंता का बल और वेग क्षीण होता चला जाता है ।
हमारी चिंता और प्रभु के चिंतन का एकदम विपरीत रिश्ता है । प्रभु चिंतन जितना-जितना होगा हमारी चिंता का कारण उतना-उतना क्षीण होता चला जाएगा । प्रभु का चिंतन जितना-जितना घटेगा हमारी चिंता का कारण उतना-उतना बलवान होता चला जाएगा ।
इसलिए सबसे जरूरी सूत्र यह है कि हमें अपनी स्वयं की चिंता करने से बचना चाहिए क्योंकि उसका कोई लाभ नहीं होता । हमें प्रभु का चिंतन करना चाहिए जिससे हमारी चिंता का दायित्व प्रभु का हो जाता है । प्रभु अपने दायित्व को सदैव निभाते हैं ।
श्री गजेन्द्रजी एवं भगवती द्रौपदीजी ने अंतिम अवसर पर प्रभु का चिंतन किया । श्री गजेन्द्रजी ने तब प्रभु का चिंतन किया जब वे लगभग पूरे डूब चुके थे । भगवती द्रौपदीजी ने प्रभु का तब चिंतन किया जब उनकी साड़ी उनके हाथ से छूटने की अवस्था में आ गई थी । अंतिम अवसर में भी किए गए प्रभु स्मरण एवं चिंतन ने उन दोनों की विपत्ति का तत्काल निवारण किया ।
महाभारत के युद्ध में एक प्रसंग आता है । श्री अर्जुनजी ने प्रण लिया था कि सूर्यास्त से पूर्व वे जयद्रथ का वध करेंगे नहीं तो अग्नि में प्रवेश करेंगे । वे प्रभु का चिंतन करते हुए निश्चिंत होकर रात्रि में सो गए और प्रभु ने उनकी चिंता करते हुए रात्रि को अपने सारथी को बुलाया । प्रभु ने अपने सारथी को कहा कि कल युद्ध में अदृश्य रूप से प्रभु के रथ को श्री अर्जुनजी के रथ के साथ रखना । अगर सूर्यास्त तक श्री अर्जुनजी ने जयद्रथ का वध नहीं किया तो प्रभु स्वयं अपने युद्ध नहीं करने के प्रण को भंग कर अपने रथ में बैठ कर जयद्रथ का वध करेंगे और श्री अर्जुनजी का प्रण पूरा कर उनको अग्नि प्रवेश करने से बचाएंगे । पूरी योजना अपने सारथी को बताने के बाद उसे विदा कर प्रभु ने सोते हुए श्री अर्जुनजी को उठाया और पूछा कि इतनी विपत्ति में तुम निश्चिंत होकर कैसे सो सकते हो । श्री अर्जुनजी का जवाब बड़ा मार्मिक था । वे मुस्कुराए और बोले कि मैंने आपका (प्रभु का) चिंतन किया है इसलिए निश्चिंत होकर सो रहा हूँ क्योंकि मेरी चिंता करने का दायित्व अब आपका (प्रभु का) हो गया है ।
इन तीनों उदाहरणों से प्रेरणा लेकर जो जीव शुरू से ही प्रभु का चिंतन करते हैं उनकी चिंता का समाधान शुरुआत में ही हो जाता है । उनकी चिंता कभी उन्हें कष्ट नहीं देती ।
संतों और भक्तों का जीवन देखेंगे तो उनके जीवन में एक सिद्धांत अवश्य देखने को मिलेगा । उन्होंने अपने पूरे जीवन प्रभु का चिंतन किया और पूरे जीवन उनकी चिंता करने का कार्य प्रभु ने किया ।