लेख सार : प्रभु एक ही हैं और प्रभु के दर पर सभी जीव बराबर हैं । प्रभु की सब पर एक बराबर दृष्टि और कृपा है । पूरा लेख नीचे पढ़ें -
Son of Lesser GOD (यानी छोटे भगवान के बच्चे) और Lesser Son of GOD (यानी भगवान के कम महत्व वाले बच्चे) - यह दोनों वाक्य निरर्थक हैं । दोनों वाक्यों की एक-एक करके चर्चा करेंगे तो पाएंगे कि सत्य इनसे भिन्न है ।
पहला वाक्य Son of Lesser GOD (यानी छोटे भगवान के बच्चे) इसलिए निरर्थक है क्योंकि प्रभु हर रूप में एक ही हैं । वे तो एक शक्ति, एक परब्रह्म हैं जो अलग-अलग नामों से जाने और पुकारे जाते हैं । प्रभु दो हैं ही नहीं तो फिर बड़े भगवान और छोटे भगवान की बात हो ही नहीं सकती । हर धर्म में एक ही परमात्मा को भिन्न-भिन्न रूपों में देखा जाता है । भिन्न-भिन्न प्रार्थना की परम्परा है, तरीके हैं । पर हर प्रार्थना उन एक परमात्मा तक ही पहुँचती है । किसी भी धर्म के भगवान दूसरे धर्म के भगवान से छोटे या बड़े नहीं हो सकते क्योंकि वे मूलतः एक ही हैं । एक के ही अनेक नाम, अनेक रूप । तो फिर रूप और नाम के कारण कोई एक दूसरे से छोटा या बड़ा नहीं हो सकता ।
दूसरा वाक्य Lesser Son of GOD (यानी भगवान के कम महत्व वाले बच्चे) भी निरर्थक है । प्रभु के यहाँ किसी जीव को ज्यादा अहमियत या कम अहमियत का दर्जा नहीं दिया जाता । मानव अपने हर रंग, हर रूप, हर जाति और हर वर्ग में प्रभु के दर पर एक जैसा दर्जा पाता है । मनुष्य ही नहीं बल्कि जलचर, थलचर और नभचर सभी प्रभु की एक जैसी संतान हैं और परमपिता के रूप में प्रभु की सब पर एक बराबर दृष्टि और कृपा है । एक कीड़ा और विश्व का सबसे धनी मनुष्य प्रभु के यहाँ समान दर्जा रखते हैं क्योंकि दोनों ही प्रभु की संतानें हैं ।
एक तथ्य समझना जरूरी है कि एक कीड़े और विश्व के सबसे धनी मनुष्य में फर्क क्या है - कर्मफल का फर्क है । एक पूर्व कर्मों के कारण कीड़ा बना और दूसरा पूर्व कर्म के फल के कारण विश्व का सबसे अमीर मनुष्य बना । कर्मफल के कारण ही सभी जीवों में भिन्नता है वरना सभी प्रभु की एक जैसी संतानें हैं ।
पहला सिद्धांत कि प्रभु एक हैं । हर धर्म में यह बात दृढ़ता से प्रमाणित है और कही गई है कि प्रभु एक हैं, अनेक नहीं । एक के अनेक नाम । फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम धर्म के किसी भी मार्ग से प्रभु तक पहुँचे । जब प्रभु एक है तो एक धर्म के प्रभु को दूसरे धर्म के प्रभु से बड़ा या छोटा मानना बड़ा हास्यप्रद है । पर हम ऐसी चूक कर बैठते हैं और अपने धर्म, अपने प्रभु को दूसरे के धर्म और दूसरे के प्रभु से बड़ा मानने की भूल करते हैं । इससे दूसरे धर्म एवं दूसरे के प्रभु का सम्मान हमारी दृष्टि में कम हो जाता है । यह एकदम गलत है क्योंकि वे दूसरे के प्रभु नहीं, वे तो हमारे ही प्रभु हैं । प्रभु एक हैं, यह हर धर्म में माना गया है फिर भी हम इसे समझते या मानते नहीं । दूसरे धर्म के प्रभु को छोटा मानना मूलतः अपने प्रभु को ही छोटा मानने जैसा अपराध है । पर हम यह अपराध कर बैठते हैं तभी तो एक धर्म का व्यक्ति दूसरे धर्म के इबादत की इमारत में माथा टेकने से परहेज करता है । क्योंकि वह व्यक्ति उस इबादत की इमारत में विराजे प्रभु को अलग देखता है इसलिए उनकी वन्दना करने से चूक जाता है । अगर हम प्रभु को एक रूप में देखना सीख जाएंगे तो प्रभु के हर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च में माथा टेकने में हमें परहेज नहीं होगा । हर इबादत की इमारत के सामने से गुजरेंगे तो हमारा सिर इबादत के लिए स्वतः ही झुक जाएगा ।
दूसरा सिद्धांत कि कोई भी प्रभु के यहाँ कम महत्व वाली संतान नहीं है । प्रभु की सभी संताने प्रभु की दृष्टि में एक जैसी है । फिर चाहे वह जलचर हो, नभचर हो, थलचर हो या वनस्पति हो, सभी की पुकार प्रभु सुनते हैं, विपदा में सभी को मदद पहुँचाते हैं । सभी को पेट भरने का साधन उपलब्ध करवाते हैं । प्रभु के लिए सभी संतानें बराबर हैं फिर चाहे वह अपने कर्मफल के कारण किसी भी योनि, किसी भी जाति में क्यों न जन्में हों । सभी संतानें बराबर होने पर भी अपने कर्मों के कारण उनमें भिन्नता रहती है । पर उनका महत्व कम नहीं होता और वे कम महत्व वाली संतान या ज्यादा महत्व वाली संतान नहीं बनते, उनका महत्व एक जैसा रहता है ।
दोनों सिद्धांतों को देखने के बाद एक ऐसे कर्म की चर्चा करते हैं जो हमें प्रभु का प्रिय बना देता है । वह कौन-सा कर्म है जो हमें प्रभु का प्रिय बना देता है ? अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए एकमात्र प्रभु से निच्छल प्रेम और प्रभु को तन-मन-धन अर्पण कर एकनिष्ठ भक्ति हमें प्रभु का प्रिय बना देती है ।
प्रभु के यहाँ सबका महत्व बराबर है पर भक्ति के द्वारा हम प्रभु के प्रिय बन जाते हैं । जैसे एक पिता की चार संतानें हैं, सबका महत्व पिता के लिए बराबर है पर कोई एक पुत्र अपने आचरण के कारण पिता को अधिक प्रिय होता है वैसे ही सब संतानें बराबर होने पर भी भक्तियुक्त संतान प्रभु को अधिक प्रिय होती हैं ।
भक्ति हमारे दृष्टिकोण में एक परिवर्तन कराती है कि हमें हर रूप में प्रभु एक ही दिखते हैं और हर रूप की वंदना में हमारा सिर झुक जाता है । प्रभु एक ही दिखते हैं और साथ ही प्रभु की संतानें भी एक जैसी दिखती हैं । फिर एक ऐसा भाईचारा हमारे भीतर से पनपता है कि हमें हर योनि, हर वर्ण, हर जाति के जीव प्रिय लगने लग जाते हैं ।
भक्ति दोनों सिद्धांतों को हमारे भीतर स्थित कर देती है । पहला, हमें कोई छोटे या बड़े भगवान नहीं दिखते, हमें सिर्फ एक ही भगवान भिन्न-भिन्न रूपों में दिखने लगते हैं । दूसरा, हमें कोई प्राणी छोटा या बड़ा नहीं दिखता, सभी एक बराबर दिखते हैं क्योंकि भक्ति के कारण हम सभी के भीतर एक ही परमात्मतत्व के दर्शन करते हैं ।
यह दोनों सिद्धांत जीवन में आ जाए तो जीवन जीने का दृष्टिकोण ही बदल जाता है । जीवन सुखमय हो जाता है । जीवन से संघर्ष खत्म हो जाता है । ऐसा होना तभी संभव होगा जब जीवन में भक्ति के बीज अंकुरित होंगे ।