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कितनी दुनियादारी रखनी चाहिए ? (साधारण दुनियादारी रखनी चाहिए)
हमने बहुत दुनियादारी की, समाज में बड़ी प्रतिष्ठा कमाई, फिर भी हमें पांच पीढ़ियों बाद पूरी तरह से भुला दिया जाएगा । क्या हमें याद है कि हमारे दादाजी के दादाजी के दादाजी ने क्या किया था । वे हमारी यादों से भुला दिए गए । समाज में भी उन्हें याद करने वाला कोई नहीं बचा । जब इतनी प्रतिष्ठा कमाने के बाद भी पांच पीढ़ियों बाद भुला ही दिया जाना है और उसके खामियाजे के तौर पर चौरासी लाख योनियों का चक्कर मिलना है तो हमें सोचना चाहिए कि क्या हमारी दिशा सही है ?
अगर हम इतनी प्रतिष्ठा कमाने पर और इतनी दुनियादारी पर ध्यान नहीं देकर प्रभु की तरफ भक्ति के द्वारा मुड़ जाते हैं तो हमारा जन्म मरण का चक्कर सदैव के लिए छूट जाता है । हम सदैव के लिए संसार के आवागमन से मुक्त हो प्रभु के श्रीकमलचरणों में स्थान पा जाते हैं ।
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शरणागत की रक्षा कौन करता है ? (शरणागत की रक्षा प्रभु करते हैं)
जो प्रभु के शरणागत नहीं होता विपत्ति में उसके बचाव में प्रभु हस्तक्षेप नहीं करते । वह जीव अपने कर्म की मार से मारा जाता है पर जो जीव प्रभु की शरणागति ले लेता है उसकी रक्षा का दायित्व प्रभु पर आ जाता है और प्रभु सदैव अपने दायित्व की पूर्ति करते हैं । पांडवों का उदाहरण है जो इस तथ्य की पुष्टि करता है । शरणागत होने पर प्रभु ने पांडवों को लाक्षागृह की आग से बचाया, श्री भीमसेनजी को जहरीले भोजन से बचाया, भगवती द्रौपदीजी को ऋषि श्री दुर्वासाजी के श्राप से बचाया, भगवती द्रौपदीजी को चीर हरण के प्रसंग में बचाया, अश्वत्थामा द्वारा पांडवों के वंश को नष्ट करने के प्रयास से श्री परीक्षितजी को बचाया, श्री अर्जुनजी को अभिमंत्रित रथ में जलने से बचाया ।
इसलिए जीवन में प्रभु की शरण ग्रहण करना सबसे जरूरी है क्योंकि अपने शरणागत की रक्षा प्रभु सदैव करते हैं । यह प्रभु का व्रत है इसलिए प्रभु अपने शरणागत की रक्षा का दायित्व सहर्ष उठाते हैं ।
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जीवन की प्रतिकूलता का सच्चा लाभ क्या है ? (प्रभु की तरफ मुड़ जाना जीवन की प्रतिकूलता का सच्चा लाभ है)
प्रभु जिस पर सच्ची कृपा करते हैं उसके जीवन में प्रतिकूलता भेजते हैं जिस कारण वह जीव प्रभु को याद करता है । फिर प्रतिकूलता के कारण प्रभु का स्मरण करने का सिलसिला उसके जीवन में चल पड़ता है । प्रभु फिर उस पर कृपा करके उसे उसकी प्रतिकूलताओं से एक-एक करके बाहर निकालते जाते हैं । इससे उस जीव का प्रभु पर विश्वास बहुत दृढ़ होता चला जाता है । इससे उस जीव के हृदय में प्रभु के लिए कृतज्ञता की भावना जगती चली जाती है । अगर प्रभु जीव को प्रतिकूलता नहीं दें और अनुकूलता ही दें तो वह जीव उसी अनुकूलता की मौज में रहेगा और प्रभु से कभी जुड़ ही नहीं पाएगा ।
इसलिए अनुकूलता देना प्रभु की बड़ी कृपा नहीं बल्कि प्रतिकूलता देना प्रभु की सबसे बड़ी और सच्ची कृपा है ।
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संसार क्या है ? (संसार बहुत बड़ा जंजाल है)
संसार एक बहुत बड़ा जंजाल है । जीव इसमें बुरी तरह से उलझकर जीवन भर रहता है । इस जंजाल से निकलने का एकमात्र उपाय है प्रभु की भक्ति । भक्ति बिना कोई भी इस संसार के जंजाल से स्वयं को मुक्त नहीं रख पाता और न ही जीवन में सुकून और शांति पा सकता है । जैसे हम भक्ति करने लगते हैं हमारा जीवन देखने का दृष्टिकोण ही बदल जाता है । हम संसार के जंजाल में न उलझकर मात्र एक दृष्टा के रूप में संसार को देखने में सफल होने लगते हैं । संसार फिर हमें प्रभावित करना और पीड़ा देना बंद कर देता है ।
इसलिए जिसको जीवन का आनंद लेना है, कर्म बंधन में नहीं बंधना और अपना इहलोक और परलोक सुधारना है उसे प्रभु की भक्ति ही करनी चाहिए ।
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किसकी जरूरत हमें सदैव पड़ती है ? (प्रभु कृपा की जरूरत हमें सदैव पड़ती है)
जरा सोच कर देखें कि हमें जीवन में प्रभु कृपा की जरूरत कहाँ नहीं पड़ती । हमें हर समय, हर जगह प्रभु की कृपा की जीवन में जरूरत होती है । हर कर्म करते वक्त हमें प्रभु की कृपा की जरूरत होती है । तात्पर्य यह है कि प्रभु की कृपा बिना जीवन में कुछ भी संभव नहीं है । प्रभु कृपा बिना जीवन ही संभव नहीं है । हमें जो श्वास आ रही है वह तो प्रभु की सबसे बड़ी कृपा है । विज्ञान में बल नहीं कि हमारे द्वारा कमाई जीवन भर की पूंजी देने पर भी एक अतिरिक्त श्वास हमें प्रदान कर सके । श्वास लेने से लेकर जीवन की हर क्रिया में प्रभु कृपा की हमें अनिवार्य रूप से जरूरत पड़ती है । हवा, पानी, रोशनी जो प्रभु ने सबको मुफ्त दी है और जो सबसे बहुमूल्य है वह प्रभु की जीव मात्र पर कितनी बड़ी कृपा है ।
जो जीव निरंतर प्रभु की कृपा को जीवन में याद रखता है और प्रभु का कृतज्ञ रहता है वह प्रभु का प्यारा बन जाता है ।
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हमें किस पर निर्भर रहना चाहिए ? (हमें प्रभु पर निर्भर रहना चाहिए)
सब कुछ के लिए अपने पुरुषार्थ को असक्षम मानना और सब कुछ के लिए प्रभु की शरणागति लेकर प्रभु पर निर्भर होना जीवन जीने का एक सफल तरीका है । अपने पुरुषार्थ से ज्यादा प्रभु पर निर्भर रहना सफलता की कुंजी है । इसका यह मतलब नहीं है कि हम अपना पुरुषार्थ न करें । पुरुषार्थ तो करें पर उस पुरुषार्थ पर भरोसा न करें । भरोसा केवल प्रभु पर ही करें । जो प्रभु पर निर्भर रहता है उसके पुरुषार्थ को प्रभु सफल करते हैं । भक्त कभी अपने पुरुषार्थ को अपनी सफलता का श्रेय नहीं देता । भक्त सदैव प्रभु की कृपा देखना सीख जाता है और प्रभु की कृपा पर ही निर्भर रहता है ।
अपने पुरुषार्थ पर भरोसा हमें असफलता भी देता है और अगर सफलता भी मिले तो हमारा अहंकार बढ़ा देता है । प्रभु पर निर्भर रहना हमें जीवन में सफलता भी देता है और प्रभु की कृपा भी दिलाता है ।
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कर्ता के रूप में किसे देखना चाहिए ? (कर्ता के रूप में प्रभु को देखना चाहिए)
जब कर्ता के रूप में प्रभु के अदृश्य श्रीहाथ और प्रभु की कृपा दिखनी बंद हो जाती है तो हमारे भीतर अपने पुरुषार्थ का अहंकार पनप जाता है । इसलिए जीवन के हर प्रसंग में प्रभु के अदृश्य श्रीहाथ और कृपा देखना हमें सीखना चाहिए । एक भक्त की यह आदत बन जाती है कि वह सर्वत्र प्रभु की कृपा का अनुभव करता है । जितनी हम प्रभु की कृपा को देखना प्रारंभ कर देते हैं उतनी अधिक प्रभु की कृपा हमें जीवन में होने लग जाती है । सफलता से जीवन जीने का तरीका यह है कि कर्ता के रूप में सदैव प्रभु को देखें और सदैव प्रभु कृपा का जीवन में अनुभव करें ।
प्रभु को कर्ता के रूप में देखने पर हमें प्रभु की कृपा सर्वत्र दिखने लगेगी और ऐसा करने पर हमारा जीवन धन्य हो जाएगा ।
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कौन-सी पूंजी सर्वश्रेष्ठ है ? (आध्यात्मिक पूंजी सर्वश्रेष्ठ है)
एक व्यक्ति व्यवसाय करके, उद्योग लगाकर धन-संपत्ति, जमीन-जायदाद इकट्ठी करके सांसारिक पूंजी कमाता है । दूसरा व्यक्ति प्रभु की भक्ति करके आध्यात्मिक पूंजी कमाता है । दोनों में कौन सफल है ? संसार की दृष्टि से सांसारिक पूंजी कमाने वाला सफल माना जाएगा पर शास्त्रों की दृष्टि से आध्यात्मिक पूंजी कमाने वाला सबसे सफल माना जाएगा । सांसारिक पूंजी का उपयोग केवल संसार तक ही सीमित है जबकि आध्यात्मिक पूंजी इहलोक और परलोक दोनों जगह चलती है । इसलिए निश्चित रूप से आध्यात्मिक पूंजी कमाने वाला ही बड़ा और सफल है ।
इसलिए हमें उस आध्यात्मिक पूंजी कमाने की तरफ ध्यान देना चाहिए जो हमारे साथ मृत्यु के बाद भी रहेगी ।
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हमारे पास क्या होना चाहिए ? (हमारे पास सिर्फ और सिर्फ प्रभु होने चाहिए)
एक संसारी कहता है कि उसके पास धन है, संपत्ति है, बंगला है, फैक्ट्री है, गाड़ी है यानी सब कुछ है । दूसरी तरफ एक भक्त कहता है कि उसके पास तो सिर्फ और सिर्फ भगवान हैं । जरा सोचें और सत्यता से चिंतन करने के बाद एक निर्णय दे कि दोनों में कौन बड़ा है ? निश्चित रूप से जिसके पास सिर्फ भगवान हैं उससे बड़ा संसार में तो क्या पूरे ब्रह्मांड में कोई नहीं है । पर हमारा दुर्भाग्य देखें कि कलियुग में माया के प्रभाव के कारण हमारा मन यह नहीं मानता । हमारा मन उसे ही बड़ा मानता है और उसका ही अनुसरण करता है जिसके पास संसारी साधन हैं ।
इसलिए जीवन में सिर्फ और सिर्फ भगवान के बनने का और सिर्फ और सिर्फ भगवान को अपना बनाने के लिए प्रयासरत होना चाहिए । इसी में मानव जीवन की सच्ची सफलता है ।
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दुःख में हम किसके समीप होते हैं ? (दुःख में हम प्रभु के समीप होते हैं)
जो दुःख में फंसा हुआ होता है वह प्रभु के ज्यादा समीप होता है क्योंकि वह प्रभु को निरंतर याद करता रहता है । इसका जीवंत उदाहरण भगवती कुंतीजी हैं जिन्होंने पांडवों के युद्ध जीतकर राज्य मिलने के बाद भी प्रभु से दुःख मांगा । ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि उन्हें पता था और उन्होंने साक्षात देखा था कि दुःख की हर बेला पर प्रभु पांडवों के साथ रहे और पांडव भी निरंतर प्रभु को याद करते रहे । जो जीव सुखी अवस्था में होता है वह प्रायः प्रभु से दूर होता है क्योंकि वह माया में उलझा रहता है । वह अपनी धन-संपत्ति, पुत्र-पौत्र और दुनियादारी में फंसा रहता है । प्रभु के लिए ऐसे में उसके पास सीमित समय ही होता है ।
दोनों उदाहरणों में कुछ अपवाद संभव है पर सिद्धांत के तौर पर यही सत्य है कि दुःख में ही हम प्रभु के ज्यादा समीप होते हैं । इसलिए जीवन में दुःख को देखकर घबराना नहीं चाहिए और प्रभु ने अपने समीप आने का हमें अवसर दिया है ऐसा मानना चाहिए ।
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