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सांसारिक धन कैसा है ? (सांसारिक धन बहुत लाचार है)
संसारी धन आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत लाचार है क्योंकि इससे हम अपना उद्धार नहीं कर सकते और न ही अपना परलोक संवार सकते हैं । इस सांसारिक धन को कमाने के लिए जो अनीति और पाप हमने किए हैं उसका दोष भी हम इस धन को व्यय करके नहीं मिटा सकते । क्या जब प्रभु के समक्ष हमारे पापों का हिसाब होगा तो हम सांसारिक धन खर्च करके उसे घटा पाएंगे ? इसलिए जब सांसारिक धन साथ देने वाला नहीं तो जीवन यापन की जरूरत से ज्यादा उसे कमाना मूर्खता है । एक तर्क दिया जाता है कि धन आने वाली पीढ़ी के काम आएगा । इतिहास गवाह है कि अगली पीढ़ी नालायक निकली तो जमा किया खजाना भी लुटा देगी और लायक निकली तो शून्य से शिखर तक खुद ही पहुँच जाएगी ।
इसलिए जीवन यापन के लिए जरूरी, बुढ़ापे के लिए जरूरी और अगली पीढ़ी के लिए कुछ व्यवस्था करके बाकी हमें अपनी ऊर्जा उस अलौकिक भक्ति धन कमाने में लगानी चाहिए जो सदैव के लिए हमें जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाकर हमारा उद्धार करा देने में एकमात्र सक्षम है ।
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स्वयं में स्थित चार वर्ण से क्या करें ? (चारों वर्णों को प्रभु सेवा में लगाए)
सनातन धर्म में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र के रूप में चार वर्ण माने गए हैं । हमें यह मानना चाहिए कि जब हम प्रभु की सेवा, पूजा और अर्चना करते हैं तो हम ब्राह्मण बन जाते हैं । जब हम अपने विकारों और अवगुणों को शत्रु रूप में देखकर प्रभु की प्रसन्नता के लिए उन पर विजय पाने का प्रयास करते हैं तो हम क्षत्रिय बन जाते हैं जो शत्रु से अपने दुर्ग अथवा राज्य की रक्षा करता है । जब हम प्रभु को अपने जीवन निर्वाह का कर्म समर्पित करके सात्विक धन अर्जन करते हैं तो हम वैश्य बन जाते हैं । जब हम प्रभु के मंदिर की सफाई, भोग और वस्त्र की व्यवस्था संभालते हैं तो हम शुद्र बन जाते हैं ।
समाज को चार वर्णों में बांटने से कहीं बेहतर है कि स्वयं को चार भागों में बांटे और जब हम प्रभु के लिए इन चार वर्णों का आचरण करने में सफल हो जाते हैं तो हमारा शरीर ही प्रभुमय हो जाता है । ऐसा इसलिए माने क्योंकि शास्त्रों ने चारों वर्णों का वास प्रभु के श्रीअंगों में बताया है । इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि अगर हमारा शरीर इन चारों वर्णों का कार्य प्रभु के लिए करता है तो हमारा शरीर ही प्रभुमय बन जाता है ।
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सबसे बड़ा आनंद कौन सा ? (भक्ति का आनंद सबसे बड़ा)
संसार की कोई भी चीज की अति होने पर एक तृप्ति का भाव उस चीज के लिए आ जाता है । किसी को मिष्ठान्न प्रिय है और दिनभर उसे मिष्ठान्न खाने को दिया जाए तो वह शाम तक इतना तृप्त हो जाएगा कि आगे खाने से मना कर देगा । पर एक प्रभु की भक्ति ही ऐसी है जिसमें जीव कभी तृप्त नहीं होता । सिर्फ प्रभु की भक्ति ऐसी है कि जीव कितना भी करे उसे और अधिक करने की चाहत होती रहेगी । ऐसा इसलिए कि जितना हम भक्ति में रमते हैं उतना अधिक आनंद की अनुभूति हमें होती चली जाती है ।
भक्ति का आनंद निरंतर बढ़ता ही चला जाता है । इसलिए जिस जीव को जीवन में सच्चे आनंद की अनुभूति करनी है उसे अविलंब प्रभु की भक्ति करना आरंभ कर देना चाहिए ।
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प्रभु किसकी पुकार सुनते हैं ? (प्रभु सबकी पुकार सुनते हैं)
एक जन्म देने वाली माँ का अपने पुत्र या पुत्री से सबसे नजदीक का रिश्ता होता है । पर अगर उस माँ का बच्चा अपने कमरे से अपनी माँ को पुकारता है तो रसोई में व्यस्त कुछ दूरी पर उस माँ तक वह आवाज नहीं पहुँचती । पर प्रभु को पुकारने पर हमारी आवाज सदैव प्रभु तक पहुँचती है, चाहे हम कहीं से भी पुकारे और कभी भी पुकारे । प्रभु हमारे अनकहे शब्दों को भी सुनते हैं । प्रभु एक चींटी की पुकार को भी सुनते हैं ।
एक माँ अपने बच्चे की दूर से दी हुई पुकार को नहीं सुन पाए पर प्रभु सदैव सभी की पुकार सुनते हैं । दो कमरे दूर बैठी माँ अपने बच्चे की पुकार को नहीं सुन पाती पर श्री बैकुंठजी में विराजे प्रभु अपने बच्चों की पुकार को सदैव सुनते हैं । प्रभु सर्वत्र कण-कण में विद्यमान है और यही कारण है कि सदैव हर जगह सबकी पुकार सुनने के लिए उपलब्ध हैं ।
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किसकी अति लाभदायक होती है ? (प्रभु प्रेम और भक्ति की अति लाभदायक होती है)
किसी भी चीज की अति दुखदायी होती है । धन का अति संग्रह हमें उसकी सुरक्षा के लिए चिंता देता है । मैथुन की अति हमारे शरीर को दुर्बल करती है । कीर्ति की अति हमारे भीतर अहंकार को जन्म देता है । इस तरह हमने देखा कि कंचन, कामिनी और कीर्ति की अति होने का परिणाम अंत में दुखदायी ही होता है ।
केवल और केवल प्रभु प्रेम और प्रभु की भक्ति में हम अति करते हैं तो वह हमें अत्यंत लाभ देती है और हमारे लिए लाभकारी सिद्ध होती है । जीव सबसे ज्यादा लाभान्वित प्रभु प्रेम और प्रभु की भक्ति से होता है । प्रभु प्रेम और प्रभु भक्ति में की गई अति हमें आनंदित भी करती है और हमारा उद्धार भी करवाती है ।
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कैसे उत्तम संतान का जन्म हो ? (माता द्वारा किए सत्संग के प्रभाव से उत्तम संतान का जन्म संभव)
अगर माताएं गर्भधारण के पूर्व से ही प्रभु की भक्ति करें और गर्भधारण के बाद निरंतर प्रभु की दिव्य कथाओं का श्रवण करें, भजन सुने, प्रभु नाम का जप करें, कीर्तन करें तो दैवीय गुणों से युक्त संतान का जन्म होगा । शास्त्र कहते हैं कि अंतरिक्ष में कितनी दिव्य आत्माएं हैं जो सात्विक गर्भ की प्रतीक्षा में रहती है ।
भक्तराज श्री प्रह्लादजी को एक जीवंत उदाहरण के रूप में देखना चाहिए । असुर कुल में जन्म लेने के बाद भी विकारों के बीच रहने पर भी वे प्रभु के इतने बड़े भक्त हुए । उनकी माता ने देवर्षि प्रभु श्री नारदजी से सत्संग और प्रभु कथा का श्रवण कराने के कारण गर्भ में पल रहे बालक पर भक्ति के संस्कार का प्रभाव हुआ । श्री प्रह्लादजी की भक्ति ने उनके कुल की पिछली और अगली पीढ़ियों का उद्धार कर दिया । इसलिए माताओं को सदैव और विशेषकर गर्भधारण के पहले और गर्भधारण के दौरान प्रभु के बारे में श्रवण, चिंतन, जप और पठन करना चाहिए जिससे उत्तमोत्तम संतान का जन्म उनकी कोख से हो ।
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किससे निष्काम प्रेम करें ? (प्रभु से निष्काम प्रेम करें)
प्रभु सबसे ज्यादा अपने भक्तों से प्रेम करते हैं । उसमें भी अपने निष्काम भक्तों से प्रभु जितना प्रेम करते हैं उसकी कोई सीमा ही नहीं है । इसलिए अगर हम भक्ति करते हैं तो धन-संपत्ति, पत्नी, पुत्र-पौत्र से भी कहीं बढ़कर हमें प्रभु से प्रेम करना चाहिए ।
प्रभु का अपने निष्काम भक्त से प्रेम अतुल्य है । इसकी तुलना किसी से भी नहीं हो सकती । किसी विशेषण का प्रयोग से इसे बताया नहीं जा सकता और कोई उपमा इसके लिए नहीं दी जा सकती । प्रभु अपने निष्काम प्रेमी भक्तों को अपना मुकुटमणि मानते हैं यानी उनका स्थान अपने श्रीमस्तक पर मानते हैं । प्रभु अपने निष्काम भक्तों को अपनी पलकों पर रखते हैं । प्रभु ने श्री रामचरितमानसजी के प्रसंग में यहाँ तक कह दिया कि उनको अपनी मातृभूमि, अपने परिवार और यहाँ तक भगवती माता से भी कहीं अधिक प्रिय उनके निष्काम भक्त हैं । इसलिए हमें अपनी प्रभु भक्ति और प्रभु प्रेम को एकदम निष्काम रखना चाहिए जैसे श्रीगोपीजन ने रखा ।
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क्या लेकर प्रभु के पास जाएं ? (श्रद्धा, प्रेम और भक्ति लेकर प्रभु के पास जाएं)
हम किसी डर के कारण या किसी कामना पूर्ति के उद्देश्य से प्रभु के पास जाते हैं तो प्रभु को ज्यादा प्रसन्नता नहीं होती । प्रभु कुछ हद तक प्रसन्न होते हैं कि किसी स्वार्थ पूर्ति के लिए ही सही पर जीव उनके पास आया तो सही । पर प्रभु को ज्यादा प्रसन्नता नहीं होती क्योंकि उसमें हमारा स्वार्थ छिपा हुआ होता है ।
शास्त्र कहते हैं कि प्रभु के पास सही मायने में जाना हो तो श्रद्धा भाव लेकर, प्रेम भाव लेकर और भक्ति भाव लेकर जाना चाहिए तभी प्रभु को पूर्ण प्रसन्नता होती है । प्रभु इतने कृपानिधान और दयावान है कि वे वैसे ही हमें हर डर से अभय करते हैं और हमारी हर सात्विक कामना की पूर्ति
स्वतः ही बिना बोले करते हैं । इसलिए प्रभु के पास जाना हो तो श्रद्धा, प्रेम और भक्ति लेकर ही जाना चाहिए ।
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किसके साथ हमारा घनिष्ठ संबंध हो ? (घनिष्ठ संबंध केवल प्रभु के साथ होना चाहिए)
हम किसी मित्र या परिवार के किसी सदस्य के साथ बहुत घनिष्ठ संबंध रखते हैं पर प्रभु के साथ घनिष्ठ संबंध रखना भूल जाते हैं । वह मित्र या परिवार का सदस्य मृत्यु के बाद किस योनि में जाएगा हमें पता नहीं । फिर चौरासी लाख योनियों में भ्रमण के दौरान कभी उससे मिलना होगा या नहीं यह भी हमें पता नहीं । पर प्रभु हमें हर योनि में शाश्वत रूप से सदैव उपलब्ध रहेंगे और हमारा प्रभु से मिलन हर योनि में संभव होगा ।
इसलिए हमें जीवन में सबसे घनिष्ठ संबंध केवल और केवल प्रभु के साथ ही रखना चाहिए ।
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किसके प्रति पूर्ण शरणागति हो ? (प्रभु के प्रति पूर्ण शरणागति होनी चाहिए)
इससे बड़ी विपत्ति एक पुरुष और नारी के लिए क्या हो सकती है कि बलवान और सामर्थ्यवान पुरुष के सामने उसकी पत्नी की लाज जा रही हो । उस नारी के लिए भी इससे बड़ी विपत्ति क्या हो सकती है कि उसके पति के सामने उसकी लाज जाने वाली हो । ऐसी परिस्थिति भगवती द्रौपदीजी की थी और ऐसी स्थिति में भगवती द्रौपदीजी की एक पुकार पर प्रभु ने उनकी लाज रखी । पर जब तक भगवती द्रौपदीजी की पूर्ण शरणागति नहीं हुई और उन्हें अपने कुटुंब बल, शरीर बल पर भरोसा था प्रभु तब तक नहीं आए ।
जब भगवती द्रौपदीजी का सब पर से विश्वास हटा और प्रभु की पूर्ण शरणागति हुई तब प्रभु तत्काल आए और उनकी लाज बचाई । इसलिए अगर हम भी बड़ी-से-बड़ी विपदा में प्रभु की पूर्ण शरणागति लेते हैं तो प्रभु निश्चित हमारी रक्षा करेंगे क्योंकि यह प्रभु का व्रत है । इसलिए जरूरत है केवल प्रभु पर पूर्ण भरोसा करने की और प्रभु की पूर्ण शरणागति लेने की ।
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